एक सैनिक की जोखिम भरी यात्रा
20 मई 1918 को राजस्थान के चुरू के रामपुरा गाँव में पीरू सिंह का जन्म हुआ था। सात भाई-बहनों में से एक पीरू को सैनिकों का जीवन हमेशा आकर्षित करता था। इसीलिए बचपन में भी खेतों में काम करना, शिकार करना, जंगलों में घूमना उन्हें अच्छा लगता 'था। देश के लिए लक्ष्य से बँधा यह सिपाही अपने बचपन में कोई बंधन नहीं पसंद करता था। स्कूल जाना भी उन्हें नहीं भाता था। एक दिन तो उन्होंने स्कूल को ऐसा छोड़ा कि फिर कभी नहीं गए। उन्होंने तो अपना रास्ता चुन लिया था— पथरीले रास्तों भरा। ऊपर पहाड़ नीचे खाई। पर बिना किसी डर के बस बढ़ते ही जाना और चलते ही जाना।
जन्म के अठारह वर्ष बाद सन् 1936 के 20 मई को वे सेना में भर्ती हुए। पंजाब में ट्रेनिंग लेने के बाद झेलम में पुनः प्रशिक्षण के लिए पोस्ट किया गया और फिर 5/1 पंजाब में तबादला हुआ। स्कूल की पढ़ाई से भागने वाला यह लड़का आर्मी की हर परीक्षा एक के बाद एक पास करता गया। लांस नायक से एक साल में ही नायक के पद पर पहुँच गए। 1945 में कंपनी हवलदार तक बने।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कॉमनवेल्थ ऑक्यूपेशनल फोर्सेज के साथ काम करने के लिए ये जापान भी गए। 1947 में जब वापस लौटे तो देश दो हिस्सों में बँट चुका था। | ये राजपूताना राइफल्स भेज दिए गए।
फिर पाकिस्तानी फौज ने पठान कबाइलियों के साथ मिलकर कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और उनका सामना करने के लिए पीरू को तैनात कर दिया गया। यहीं पर उन्होंने एक अनुकरणीय साहसिक काम कर दिखाया, जिसके लिए उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। ये 30 वर्ष की अल्पायु में ही शहीद हो गए और छोटी सी उम्र की बड़ी कहानी बन कर अब भी हमारे साथ हैं पीरू सिंह...।
दारापरी - 18 जुलाई 1948
कंपनी हवलदार मेजर (सीएचएम) पीरू सिंह इस समय न ऊपर देख सकते थे न नीचे। आसमान गहरा नीला था. चाँदनी रात थी पर एक सिपाही को ऊपर देखने की फुर्सत कहाँ? नीचे खाई में देखते थे तो एक भया सारा रास्ता पथरीला था। पैर सीधे नहीं पड़ रहे थे। एक भी गलत कदम मृत्यु की ओर ले जा सकता था। ये डेल्टा कंपनी -6 राजपूताना राइफल्स के जवान थे, जो धीरे-धीरे दारापरी की ओर बढ़ रहे थे। इन्हें सूचना थी कि हमलावर यहीं कहीं आसपास छुपे बैठे हैं। थकी चाल थी पर उनके हौसले बुलंद थे जो इस समय ढाल का काम कर रहे थे। वे चुपचाप एक-दूसरे की ओर देख रहे थे और मानो कह रहे हों बस थोड़ा रास्ता और है। इसी थकान के दौरान पुरानी स्मृतियाँ कुछ राहत दे रही थीं। कश्मीर के इस पहाड़ी इलाके को पाकिस्तानी घुसपैठियों से आज़ाद कराना था। सिपाहियों को हवाई जहाज से श्रीनगर पहुँचाया गया। अधिकांश सिपाहियों की यह पहली हवाई यात्रा थी।
अप्रैल 1948 की इस खतरनाक लड़ाई में पाकिस्तानियों को भारी नुकसान हुआ। इसी लड़ाई में 29 अप्रैल की रात प्रतिपक्षी के एक पोज़ीशन पर भारतीय सिपाहियों ने कब्ज़ा कर लिया था। धौंकल सिंह ने इस जीत को अंजाम दिया था। पीरू सिंह को उनकी याद आई। यह भी याद आया कि धौंकल सिंह घने जंगलों के बीच से गोलीबारी से अपने आप को बचाते हुए, कंधे की चोट की परवाह न करते हुए एक सिंह की भांति लड़े थे।
यह याद करते हुए पीरू सिंह को नहीं पता था कि एक दिन उनके साथ भी ऐसा ही होगा। वे अपने साथी को सम्मान से याद करते हुए आगे बढ़ते गए। अब वे 10,264 फीट की ऊँचाई पर नस्ता चुन दर्रे पर थे। वे लोग काफ़िर रिज़ प्वाइंट पर थे जिस पर पाकिस्तानी सैनिकों ने कब्ज़ा कर रखा था और 24 घंटे में उन्हें बनिवाला दाना रिज़ पहुँचना था। काफ़िर खान रिज़ और बनिवाला दाना रिज़ के बीच एक छोटी नदी थी, जिसे पार करने के लिए इंजीनियरों की एक टीम रातोंरात एक पुल बनाने की कोशिश करने लगी। पर सफलता नहीं मिली। जिसकी वजह से पीरू सिंह और उनके साथियों को लकड़ी के लट्ठों से नदी पार करने का रास्ता बनाना था। आखिरकार 12 जुलाई 1948 की सुबह तक प्रतिपक्षी के ठिकाने पर कब्ज़ा कर लिया गया। अब वे अगले ठिकाने की ओर रवाना हो गए। किसी भी तरह दारापरी को अपने कब्जे में लेना था। 18 जुलाई को बटालियन ने दारापरी की नुकीली रिज़ पर हमला बोल दिया।
यहाँ तक पहुँचने में पीरू सिंह और उनके साथियों को यह नहीं पता था कि पाकिस्तानी सैनिकों ने ऐसी पाँच खंदकें बना ली थीं जहाँ से वे भारतीय सैनिकों पर नजर रख सकते थे। इसीलिए जब भारतीय सैनिक आगे बढ़े तो उधर से गोलियों की बौछार होने लगी। में लोग • दारापरी कश्मीर के टिथवाल सेक्टर में स्थित है और इसकी ऊँचाई 11,481 फीट है।
इस बात के लिए तैयार नहीं थे। सर्दियों की रात और रास्ता बिल्कुल संकरा था इसीलिए 51 भारतीय सैनिक मारे गए। ऐसे में किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या हो। आगे का रास्ता तय करना बेहद मुश्किल था। उस समय पीरू सिंह ने अपना अभूतपूर्व साहस दिखाया। उधर प्रतिपक्षी ये समझने लगे थे कि अब उनकी जीत सामने है। पर पीरू सिंह बड़ी समझदारी से फॉरवर्ड सेक्शन के साथ चलते हुए, गोलियों की मार से अपने आप को बचाते हुए आगे बढ़ते गए। साथियों की कराहों के साथ-साथ इनकी चाल और तेज हो रही थी, मानो अपने साथियों का बदला अभी और इसी वक्त ले लेंगे। प्रतिपक्षी इसके लिए तैयार नहीं थे। पीरू सिंह ने मशीनगन चलाने वाले सिपाहियों पर संगीन से हमला कर दिया। अचानक उधर सब कुछ शांत हो गया, प्रतिपक्षियों की मशीनगनें और सांसें भी।
इधर पीरू सिंह ने पाया कि वे बिल्कुल अकेले हैं। उनके सभी साथी या तो मारे जा चुके थे या घायल हो चुके थे। सेक्शन में वे बिल्कुल अकेले चिल्लाते हुए, मानो जिंदगी को पुकार रहे हों, दूसरे बंकर तक गए। उधर इनकी हर हरकत पर बचे हुए पाकिस्तानी सैनिकों की नज़रें थीं। उन्होंने ग्रेनेड से हमला बोला। पीरू सिंह बुरी तरह घायल हो गए और उनकी आँखें मुंदने लगीं, खून तेजी से बहने लगा पर पीरू सिंह का आत्मबल उससे भी तेजी से बढ़ने लगा।
उन्होंने अपनी पूरी ताकत से हथगोले प्रतिपक्षी की बंकर की ओर फेंके। पाकिस्तानी सैनिक शांत हो गए थे। उधर तेज़ धमाका हुआ था। अब पीरू को अपनी चोटों का एहसास हुआ। अबकी बार उनकी आँखें बंद हुई तो फिर न खुली....
पीरू सिंह को मरणोपरांत परम वीर चक्र प्रदान किया गया। उनकी टुकड़ी, 6 राजपूताना राइफ़ल्स हर वर्ष इस बहादुर सिपाही की याद में 'बैटल ऑनर ऑफ़ दारापरी' स्मरणोत्सव मनाती है।
युद्ध नायक के सम्मान में पं. नेहरू का खत पीरू की माँ के नाम
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पीरू सिंह की माँ (तारावती कंवर) को खत में लिखा- “अपने साहसिक कार्य के लिए उन्होंने अपनी जान कुर्बान कर दी. लेकिन वे अपने साथियों के लिए बहादुरी और साहस की एक अनोखी मिसाल कायम कर गए। मातृभूमि की सेवा में उनके इस बलिदान के लिए देश उनका आभारी रहेगा। हमारी प्रार्थना है कि शायद इस ख्याल से आपके दिल को कुछ शांति और तसल्ली मिले"
स्रोत- शूरवीर, रचना बिष्ट रावत
2831592 कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह, छठी बटालियन, राजपूताना राइफल्स (मरणोपरांत) (पुरस्कार की प्रभावी तारीख 18 जुलाई 1948)
टिथवाल के दक्षिण में डी कंपनी, जिसके एक सदस्य हवलदार मेजर पीरू सिंह नंबर 2831592 थे, को दुश्मन के कब्जे वाले पहाड़ी क्षेत्र पर आक्रमण करने एवं अपने कब्जे में लेने का कार्य सौंपा गया। दुश्मन ने जमीन खोदकर मोर्चे बनाए हुए थे तथा सभी संभावित हमलों का जवाब देने के लिए मीडियम मशीन गनें लगाई हुई थीं। दुश्मन पर जैसे ही हमला आरंभ किया गया, उसने दोनों तरफ से भारी एमएमजी फायर किया। दुश्मन के बंकरों से भी एक के बाद एक ग्रेनेड नीचे की ओर फेंके जाने लगे। उस समय सीएचएम पीरू सिंह कंपनी के सबसे आगे वाले सेक्शन के साथ थे।
अपने सेक्शन के आधे से अधिक जवानों को शहीद अथवा जख्मी हालत में देखकर भी सीएचएम पीरू सिंह ने हिम्मत नहीं हारी। युद्धघोष करते हुए उन्होंने अपने बाकी साथियों की हौसला अफजाई करते हुए दुश्मन की सबसे नजदीकी एमएमजी पोजीशन पर धावा बोल • दिया। दुश्मन के ग्रेनेड के छरों ने उनकी वर्दी को भेदते हुए उनके शरीर को कई जगह से जख्मी कर दिया। परंतु वह अपनी जान की जरा भी परवाह न करते हुए आगे बढ़ते रहे। वह एमएमजी पोजीशन के ऊपर पहुँचे तथा अपनी स्टेनगन के फायर से गन क्रू को घायल कर दिया। उनके जख्मों से खून बह रहा था, परंतु इसकी परवाह न करते हुए वे एमएमजी क्रू पर टूट पड़े तथा संगीन के वार से उन्हें मौत के घाट उतार दिया और इस प्रकार एमएमजी का हमला बंद हो गया।
उस समय अचानक उन्हें महसूस हुआ कि अपने सेक्शन में केवल वे स्वयं ही जिंदा बचे थे। उनके बाकी साथी या तो शहीद हो चुके थे अथवा जख्मी थे। दुश्मन के एक ग्रेनेड से उनका चेहरा जख्मी हो गया। चेहरे पर लगे जख्मों के कारण उनकी आँखों में खून टपक रहा था। परंतु वह रेंगकर खाई से बाहर आए तथा दुश्मन की अगली पोजीशन पर ग्रेनेड से हमला किया। ज़ोरदार युद्धघोष के साथ वे अगली खाई में बैठे दुश्मन सैनिकों पर टूट पड़े और दुश्मन के दो सैनिकों को संगीन के वार से ढेर कर दिया। यह कारनामा 'सी' कंपनी के कमांडर ने अपनी आँखों से देखा जो हमला कर रही कंपनी की सहायता के लिए फायर करने का निर्देश दे रहे थे।
जैसे ही हवलदार मेजर पीरू सिंह दूसरी खाई से बाहर निकलकर दुश्मन के तीसरे बंकर पर हमला करने के लिए आगे बढ़े, उनके सिर में एक गोली लगी तथा वह दुश्मन की खाई के मुहाने पर लुढ़क गए। उसी समय खाई के अंदर जोरदार विस्फोट हुआ जिससे लगा कि उनके द्वारा अंदर फेके गए ग्रेनेड ने अपना काम कर दिया था। तब तक सीएचएम पीरू सिंह के जख्मों से काफी खून बह चुका था और वे वीरगति को प्राप्त हो गए।
गजट ऑफ़ इंडिया नोटिफिकेशन सं.8- प्रेसी/52
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