एक फ़ौजी का सफ़र
'दुश्मन नीढ़े सी। अस्सी तिन सी. ते चौथा तू हुण की करिए?” (दुश्मन बिल्कुल करीब है, हम तीन हैं और चौथे तुम ही हो, अब हमें क्या करना चाहिए?) जब एक सिपाही ने करम सिंह से ये बातें कहीं, उस वक्त करम सिंह की पतलून खून से सराबोर थी, क्योंकि वे और उनके साथी तब तक पहले पाकिस्तानी हमले का सामना कर चुके थे। यह उसके बाद होने वाला दूसरा हमला था और उनमें सिर्फ चार लोग ही बचे थे। न तो उनके पास पर्याप्त मात्रा में गोला-बारूद बचे थे और न ही उन्हें तुरंत पा सकने का कोई और साधन ही था। उसपर भी पाकिस्तानी सैनिकों की बड़ी भारी संख्या उन्हें अपनी चौकी की ओर बढ़ती हुई दिख रही थी। उनके सहयोगी मारे जा चुके थे। दुश्मन की गोलियाँ चट्टानों को भेद रही थीं और चट्टानों के उड़ते बिखरते टुकड़े सैनिकों को घायल कर रहे थे। लेकिन इन सबके बावजूद ये गोलियाँ चट्टानों से भी मजबूत भारतीय सैनिकों के मनोबल को तोड़ने में नितांत असमर्थ रहीं। देखते ही देखते घायल करम सिंह ने एक हथगोला उठाया और जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल' के जयघोष के साथ उसे हवा में उछाल दिया। हथगोले के विस्फोट से पाकिस्तानी सैनिकों का नियंत्रण जाता रहा। जदो अस्सी इत्थे जान दे दांगे तां साड़ी कीमत वध जावेगी' (यानी यदि हम यहाँ अपनी जान दे देते हैं, तो हमारी कीमत बढ़ जाएगी) करम सिंह ने विश्वास से भरी अपनी ऊँची गरजती आवाज में जैसे ही यह कहा वैसे ही सैनिकों का मनोबल बढ़कर आसमान लगा।
हथगोला तो करम सिंह जैसे खिलाड़ी के लिए एक गेंद के समान था, जिसे उन्होंने विपक्ष के पाले में उछाल फेंका था। इस दूसरे विस्फोट के साथ ही प्रतिपक्षी धराशायी हो गया और करम सिंह उन्हें पीछे धकेलते हुए आगे बढ़ने लगे।
चौकी पर पुनः अधिकार के लिए पाकिस्तानी सैनिकों ने अनेक आक्रमण किए। ऐसे समय में गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद करम सिंह ने न केवल अपने साहस को बनाए रखा, बल्कि अपने सैनिकों के मनोबल एवं उनकी संकल्प शक्ति को भी निरंतर बढ़ाते रहे। उसी दिन दोपहर के करीब एक बजे पाकिस्तान ने पाँचवीं बार आक्रमण किया और यह वही समय था जब करम सिंह ने इतिहास रच डाला।
यह कहानी 15 सितंबर 1915 को जन्मे करम सिंह की है। यह वह दौर था, जब पूरा विश्व प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामों से जूझ रहा था। करम सिंह के पिता सरदार उत्तम सिंह सहना गाँव के रहने वाले एक किसान थे। बालक करम सिंह को खेलना व खेतों में काम करना बहुत अच्छा लगता था। स्कूली पठन-पाठन में उनकी रुचि कम ही थी, परंतु खेल उनकी विशिष्टता थी। ऊंची कूद एवं पोल वॉल्ट (लग्गाकूद) में वे हमेशा पहले स्थान पर ही रहे। 1950 में गुरदयाल कौर से इनका विवाह हुआ और इनकी दो संतानें हुईं, एक बेटा और एक बेटी। 15 सितंबर 1941 को करम सिंह भारतीय सेना से जुड़े। परिश्रम, खेल भावना से परिपूर्ण एवं कर्तव्यनिष्ठा जैसे चारित्रक गुणों ने ही इन्हें 'सम्मानी कप्तान' के पद तक पहुँचाया।
ईमानदार और न्याय के लिए प्रतिबद्ध योद्धा
"1960 के दशक की शुरुआत में करम सिंह मेरठ के सिख रेजिमेंटल सेंटर में थे। उन्हें स्थानीय मिल से सिपाहियों के लिए चीनी खरीदने को कहा गया। किसी ने उनका ध्यान इस बात की तरफ दिलाया कि चीनी की बोरियों को उसका वज़न बढ़ाने के लिए पानी में भिगोकर बेचा जा रहा है। गुस्साए करम सिंह ने मिल वालों से कहा कि वे गीली बोरियाँ स्वीकार नहीं करेंगे। मिल का मालिक एक भ्रष्ट परंतु रसूख वाला व्यक्ति था और उसकी करम सिंह से इस बात को लेकर झड़प हो गई। जब करम सिंह अपनी बात से टस से मस नहीं हुए तो मिल के मालिक ने करम सिंह के साथ धक्कामुक्की करना शुरू कर दिया और अपनी पहुँच का हवाला देते हुए उन्हें धमकी दी कि वह उन्हें देख लेगा।
अब तक करम सिंह अपना आपा खो चुके थे। उन्होंने मिल मालिक की बुरी तरह से पिटाई कर दी। जब इस बात की शिकायत बड़े अधिकारियों तक पहुँची तो नागरिक से हाथापाई के जुर्म में उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया।
करम सिंह अन्याय को चुपचाप सहने वालों में से नहीं थे। वे अपने मेडल्स लेकर दिल्ली पहुँच गए और राष्ट्रपति से मिलने का समय माँगा। उन्हें मिलने का समय दिया गया। जब उन्होंने राष्ट्रपति को सारी घटना साफ़-साफ़ बताई तो उन्हें तुरंत नौकरी पर पुनः बहाल करने के आदेश जारी कर दिए गए।
• स्रोत शूरवीर, रचना बिष्ट रावत
अद्भुत जीत 13 अक्तूबर 1948
13 अक्तूबर 1948 की सुबह लगभग 6 बजे के आस-पास । सिख रेजिमेंट पर अधिकार करने के उद्देश्य से दुश्मन उसकी ओर निरंतर बढ़ रहा था। अब तक करम सिंह और उनके साथी दुश्मन पर कई असफल आक्रमण कर चुके थे। वे यह समझ चुके थे कि इतनी बुरी तरह से घायल होने के बाद, उन लोगों के लिए देर तक दुश्मन का सामना करना अत्यंत कठिन होगा। ऐसी परिस्थिति में उन्होंने मुख्य कंपनी से जुड़ने का निर्णय लिया और मोर्टार और बंदूकों की भारी गोलीबारी के बीच ही गंभीर रूप से घायल अपने दो साथियों को लेकर उस ओर चल पड़े।
सुबह दस बजे के आस-पास दुश्मनों की ओर से एक और हमला हुआ। इस बार यह हमला मुख्य कंपनी पर था। बंकरों के नष्ट हो जाने के बावजूद बुरी तरह से घायल होते हुए भी करम सिंह ने दुश्मनों के खिलाफ लड़ाई जारी रखी। वे अपने साथियों का मनोबल बढ़ाते हुए एक बंकर से दूसरे बंकर तक जाते रहे। वे सभी बुरी तरह से घायल थे।
• लगभग सुबह छः बजे के आस-पास भीषण आक्रमण के बीच उनमें से किसी को भी अपने जख्मों के संबंध में सोचने का वक्त नहीं था। ऐसी स्थिति में भी करम सिंह को अपने साथियों की ही चिंता थी। आक्रमण के दौरान पाकिस्तानी सैनिक बंकर के इतने करीब आ पहुँचे थे कि अपने साथियों को बचाते हुए उन पर जवाबी हमला करना कठिन हो गया था। इसी स्थिति में करम सिंह ने अपनी बंदूक में एक बेयोनेट फिट किया और बंकर से बाहर कूद पड़े। वे आक्रमण करते हुए आगे बढ़ते गए। ऐसी बहादुरी और आकस्मिक बचाव के इस प्रयास को देख दुश्मन भी भौंचक्के रह गए। उनके पसीने छूट गए और शाम तक वे धीरे-धीरे पीछे हटने लगे।
अब तक करम सिंह और उनकी टोली ने ऐसे आठ आक्रमणों का सामना किया था, जिसका प्रत्युत्तर सिख रेजिमेंट ने सफलतापूर्वक दिया। इन सैनिकों ने भारी नुकसान का सामना किया, परंतु इनका मनोबल पूरी तरह अक्षुण्ण रहा। बाद में मेजर जनरल के.एस. विमध्या ने इसे एक अद्वितीय चमत्कारपूर्ण विजय कहा था। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा क्योंकि हरेक नया कदम, हर प्रयास सिर्फ और सिर्फ विजय की ओर ही इंगित कर रहा था। इस अद्वितीय कर्तव्यनिष्ठा एवं वीरता के लिए ही करम सिंह को परम वीर चक्र से नवाजा
गया था। वर्मा में अंग्रेजी सेना के लिए ऐसी ही वीरता एवं साहस के साथ लड़ने के लिए पहले भी उन्हें एक वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ, तब करम सिंह उन पाँच सैनिकों में से एक थे, जिन्हें भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ तिरंगा फहराने के लिए चुना गया था। एक सम्मानी कप्तान के रूप में सन् 1993 में इनका निधन हुआ। लेकिन हम सभी देशवासियों के दिलों में वे अपने साहसिक कार्यों, वीरता, सौहार्द एवं न्यायप्रियता के कारण हमेशा जीवित रहेंगे।
प्रशस्ति पत्र
लांस नायक करम सिंह (सं. 22365), 1 सिख
23 मई 1948 को जम्मू कश्मीर का टथिवाल क्षेत्र अधकार में ले लाया गया था। उस दनि के बाद से दुश्मन ने रचिमर गली तथा उसके बाद टथिवाल पर पुनः अधकिार के लएि अनगनित प्रयास किए। 13 अक्तूबर 1948 को ठीक ईद के दनि, दुश्मनों ने टथिवाल से गुजरते हुए श्रीनगर घाटी में आगे बढ़ने के लएि रचिमर गली पर पुनः अधकिार करने का फैसला लाया। रचिमर गली के एक दल का नेतृत्व उस समय लास नायक करम सिंह कर रहे थे।
दुश्मन ने बंदूकों और मोर्टार की भीषण गोलाबारी से इस आक्रमण का आरंभ किया था।। उनके निशाने इतने सटीक थे कि दस्ते के आस-पास के एक भी बंकर सही सलामत नहीं बचे थे।
संपर्क की सभी खंदकें ध्वस्त हो गई थीं। लांस नायक करम सिंह वीरतापूर्वक एक बकर से दूसरे बकर तक जाकर घायलों की सहायता कर रहे थे और उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित कर रहे थे।
उस दिन दुश्मन की ओर से अलग-अलग आठ आक्रमण किए गए। इनमें से एक आक्रमण में दुश्मन दस्ते के आस-पास के क्षेत्र में अपने पैर जमाने में सफल हो गए। लेकिन तुरंत ही लांस नायक करम सिंह ने, जो कि उस समय बुरी तरह से घायल थे, कुछ साथियों के साथ जोर से चिल्लाते हुए पलटवार किया और एक समीपी मुठभेड़ के बाद दुश्मनों को उस क्षेत्र से खदेड़ दिया। इस मुठभेड़ में कई दुश्मन सैनिक बेयोनेट के द्वारा मौत के घाट उतार दिए गए।
लांस नायक करम सिंह ने स्वयं को 'संकट काल के एक निर्भीक नायक' के रूप में सिद्ध किया। कोई भी परिस्थिति उन्हें परास्त नहीं कर सकी थी और न ही गोलाबारी या कठिनाइयाँ उनके मनोबल को तोड़ पाई थी।
उस दिन के उनके साहसिक कार्य ने उनके साथियों को दृढतापूर्वक भीषण संग्राम का सामना करने की प्रेरणा प्रदान की। यह उनका स्वाभिमान से भरा प्रचण्ड उत्साह ही था, जो टिथवाल के उस शानदार निर्णय के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी था।
गजट ऑफ इंडिया नोटिफिकेशन सं. 2- प्रेसी. /50
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