आपने वीरता की असंख्य कहानियाँ सुनी होंगी, लेकिन उन शहीदों और सैनिकों के त्याग का कोई सानी नहीं, जो स्वेच्छा से अपने देश और देशवासियों के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। देशवासियों के प्रति उनकी चिंता और उनका प्रेम तथा शांति और देशभक्ति में अग्रणी होने का उनका दृढ आत्मविश्वास सराहनीय है। आम नागरिकों के लिए जो युद्ध- समाचारों के श्रोतामात्र होते हैं, उनके लिए सैनिकों द्वारा किया गया बलिदान अकल्पनीय होता है। विक्रम बत्रा केवल एक सैनिक ही नहीं थे, वे अपने 'जयघोष 'ये दिल मांगे मोर' में आने वाले शब्द 'मोर' की तरह थे। अर्थात् उस जीत का आधार थे। विक्रम बत्रा एक भावुक देशभक्त थे और युद्ध में मिली जीत ने उनके मनोबल को और भी बढ़ा दिया था।
श्री जी. एल. बत्रा एवं श्रीमती जय कमल बत्रा के पुत्र विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 at हुआ और हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में इनका पालन-पोषण किया गया। इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा डी.ए.वी. पब्लिक स्कूल, पालमपुर तथा केंद्रीय विद्यालय, पालमपुर से पूरी की।
डी.ए.वी. कॉलेज, चंडीगढ़ के दिनों में ही, विक्रम बत्रा के जीवन ने एक निर्णायक मोड़ लिया, जिससे वे रक्षा बलों का एक हिस्सा बन गए। अपनी बी.एससी. की डिग्री के दौरान ही इन्होंने उत्तरी क्षेत्र के एन.सी.सी. (एयर विंग) के 'सर्वोत्तम कैडेट' का तमगा प्राप्त किया था और जल्द ही वे अपने आरक्षित टिकट और तैयार वर्दी के साथ 'मर्चेंट नेवी' का हिस्सा बनने को तैयार थे, तभी अचानक उनके विचार बदल गए और उन्होंने भारतीय सेना में शामिल होने का निर्णय ले लिया। वे भारतीय सेना के 13 जम्मू और कश्मीर राइफ़ल्स में एक लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त हुए और उनकी पहली पोस्टिंग जम्मू और कश्मीर के बारामूला जिले के सोपोर में हुई थी।
13 जे. ए. के. राइफ़ल्स दस्ता कश्मीर के सोपोर में अपने विद्रोह प्रतिरोधक कार्रवाई ऑपरेशन की अवधि पूरी करके, शाहजहाँपुर की ओर जा रहा था। उसे वापस बुलाया गया, क्योंकि कारगिल में युद्ध प्रारंभ हो चुका था। 12 जून 1999 को इस रेजिमेंट को तोलोलिंग पर अधिकार करने हेतु 18 ग्रेनेडियर्स के लिए एक आरक्षित टुकड़ी के रूप में द्रास पहुँचने के लिए कहा गया। 17 जून को तोलोलिंग पर अधिकार के बाद 13 जे. ए. के. राइफ़ल्स के लिए अगला कार्य समुद्रतल से लगभग 15000 फीट की ऊंचाई वाले प्वाइंट 5140 पर अधिकार करना था। यह चोटी द्रास क्षेत्र की सबसे खतरनाक एवं दुर्गम चोटी थी। यहाँ पाकिस्तानी घुसपैठियों ने बंकरों में छिपकर मोर्चा संभाल रखा था। इस प्वाइंट पर पुनः अधिकार करने का अत्यंत जोखिमभरा कार्य डेल्टा कंपनी के लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा तथा ब्रावो कंपनी के लेफ्टिनेंट संजीव जामवाल को सौंपा गया था।
सबसे बड़ा कार्य था पर्वत पर चढ़ना। सभी को यह अच्छी तरह मालूम था कि चोटी तक पहुँचना बेहद चुनौतीपूर्ण काम होगा, क्योंकि दुश्मन इन धावा करने वाले सैनिकों पर निरंतर प्रभावी ढंग से गोलियाँ बरसा रहा था। "जब परिस्थितियाँ कठिन होती हैं तब मजबूत लोग ही चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्रिय हो जाते हैं इस कहावत को चरितार्थ करते हुए दोनों कंपनियाँ सभी अड़चनों का सामना करती हुई चढ़ाई करती रही। अपनी रणनीति के तहत, विक्रम बत्रा ने दुश्मनों पर सहसा आक्रमण कर चौंकाने के लिए अपनी टुकड़ी को विपक्षी टुकड़ी की विपरीत दिशा से ले जाने का निश्चय किया। दुश्मन के भशीनगन पोस्ट से भयंकर गोलाबारी शुरू हो गई थी। घुसपैठियों के गन पोस्ट पर ग्रेनेड फेंकने तथा आमने-सामने युद्ध के लिए विक्रम बत्रा और उनकी टीम बेहद तेज़ गति से आगे बढ़ी और आखिरकार उन्होंने चोटी पर अपना अधिकार जमा ही लिया। इतने प्रभावशाली ढंग से मानवनिर्मित और संचालित इस अभियान को पर्वतीय युद्ध के सबसे मुश्किल अभियानों में से एक माना जाता है। इस अभियान ने ही विक्रम बत्रा और उनके नेतृत्व कौशल को राष्ट्रीय सुर्खियों में तब्दील कर दिया था। उनकी इस अद्भुत सफलता को देशभर के टेलिविज़न स्क्रीन पर प्रसारित किया गया था। उनके इस अद्भुत शौर्य-प्रदर्शन का ही परिणाम था कि युद्धभूमि पर ही उन्हें कप्तान के पद पर नियुक्त कर दिया गया। इस हमले का सबसे आश्चर्यजनक पहलू था, भारतीय पक्ष से किसी का भी हताहत न होना।
इन सभी साहसिक कारनामों के पश्चात् कैप्टन विक्रम बत्रा ऐसे ही और वीरतापूर्ण पराक्रमों को पूरा कर प्रशंसा प्राप्त करने के लिए उत्सुक थे। जल्द ही और भी बहुत कुछ होना था। 13 जे. ए. के. राइफ़ल्स को द्रास सेक्टर से हटाकर प्वाइंट 4875 पर अधिकार करने के लिए मुश्कोह घाटी में भेज दिया गया। अपनी योग्यता सिद्ध कर देने के कारण, विक्रम और उनके साथियों को एक ऐसी सँकरी जगह का सफाया करने का कार्य सौंपा गया जो दुश्मन द्वारा बहुत ही संरक्षित थी। अपने मन में पिछली जीत की बाद को सैंजोकर वह उत्साहित टीम चतुराई से उस प्रभावी युद्ध में उलझ गई, लेकिन दुश्मन की ओर से हो रही भारी गोलाबारी ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। बिना विचलित हुए विक्रम दुश्मनों पर हमला करते रहे जिसके दौरान उन्होंने प्वाइट ब्लैक रेंज पर पाँच दुश्मनों को मार गिराया। शून्य से भी नीचे का तापमान और भोर का समय भी इन बहादुर सैनिकों के मनोबल को नहीं डिगा सका। जोश से भरे हुए कैप्टन बत्रा 'जय माता दी' के उद्घोष के साथ ही रोके न रुकने वाली पूरी शक्ति के साथ दुश्मन की सेना पर टूट पड़े। यह वह समय था जब एक घायल सैनिक को हटाते हुए उन पर प्राणघातक हमला हुआ। उन्होंने अपने साथी सैनिक को एक तरफ हटाते हुए कहा, 'तू बाल-बच्चेदार है, हट जा पीछे' और फिर खुद ही दुश्मन का सामना करने के लिए उठ खड़े हुए। तभी अचानक एक बम का गोला, सीधा उनकी कमर के पास आकर फटा और वे 'जय माता दी' कहते हुए धराशायी हो गए।
कैप्टन विक्रम बत्रा के इस बलिदान और साहसिक कार्य ने उनकी पलटन को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और उन लोगों ने उस चट्टान पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया जिसके परिणामस्वरूप इनकी पलटन को प्वाइंट 4875 पर पुनः अधिकार प्राप्त हो गया। उनके साहसिक कार्य, अतुलनीय पराक्रम एवं सहनशीलता को देखते हुए. भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार परम वीर चक्र से सम्मानित किया तथा प्वाइंट 4875 को 'कैप्टन विक्रम बत्रा टॉप' नाम दिया।
उनके बलिदान और सौहार्द की भावना को याद करते हुए भारतीय सेना ने अपनी कई इमारतों और छावनियों का नामकरण इनके नाम पर किया है। इनमें से कुछ हैं इलाहाबाद के 'सर्विस सलेक्शन सेंटर' के एक हॉल को 'विक्रम बत्रा ब्लॉक' नाम दिया गया, जबलपुर चौकी के एक रिहायसी इलाके का नाम 'कैप्टन विक्रम बत्रा इन्क्लेव' रखा गया तथा इंडियन मिलिट्री एकेडमी, देहरादून के संयुक्त कैडेट भोजनालय का नाम "विक्रम बत्रा मेस' रखा गया। जब वे अपने घर आखिरी बार गए थे, तब उनके एक मित्र ने उन्हें युद्ध में सतर्क रहने की सलाह दी थी और उस बात को सुनकर उन्होंने जवाब दिया, मैं या तो भारतीय विजय पताका फहराकर आऊँगा या फिर उसमें लिपटकर, लेकिन मैं आऊंगा जरूरा" इस महान शहीद का जीवन और कर्म आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरणा देता रहेगा।
द्रास सेक्टर में दुश्मन के पास अच्छी तरह घिरे हुए ठिकाने थे, जो कि स्वचालित हथियारों से भली-भाँति सुदृढ किए गए थे तथा जिन तक पहुँचने के रास्ते, लेह के संसाधनों की जीवन रेखा श्रीनगर-लेहमार्ग से होकर जाते थे और जोखिम भरे थे।
20 जून 1999 को कैप्टन विक्रम बत्रा, कमांडर डेल्टा कंपनी को प्वाइंट 5140 पर ऑपरेशन विजय के दौरान हमला करने का कार्य सौंपा गया। कैप्टन विक्रम बत्रा ने अपनी कंपनी के साथ उस जगह को पूर्व दिशा से घेर लिया तथा दुश्मनों को अनजान रखते हुए हमला करने योग्य दूरी पर आ पहुँचे। उस जाँबाज़ अधिकारी ने अपने दस्ते को फिर व्यवस्थित कर अपने फौजियों को दुश्मन के ठिकाने पर सीधे-सीधे शारीरिक हमला करने के लिए प्रोत्साहित किया। आगे रहकर अपने फौजियों का नेतृत्व करते हुए उस जाँबाज़ अधिकारी ने एक साहसिक हमले में दुश्मन पर झपटकर चार घुसपैठियों को आमने-सामने के युद्ध में मार गिराया।
7 जुलाई 1999 को प्वाइंट 4875 के इलाके में एक और ऑपरेशन के दौरान उनकी कंपनी को दोनों ओर नुकीली कटाई वाली एक संकरी जगह का सफाया करने का आदेश दिया गया, जिसपर दुश्मन के बड़े भारी तरीके से घिरे हुए ऐसे सुरक्षा ठिकाने थे, जो उस स्थल तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता बंद किए हुए थे।
ऑपरेशन को और तेज करने के लिए कैप्टन बत्रा ने दुश्मन के ठिकानों पर एक सैकरी पहाड़ी से हमला करने का निश्चय किया। हमले का नेतृत्व करते हुए उन्होंने दुश्मन को एक भयंकर आमने-सामने के युद्ध में उलझाकर पाँच दुश्मन सैनिकों को प्वाइंट ब्लॅकरेंज पर मार गिराया। इस सब के दौरान कैप्टन बत्रा को गंभीर जख्म झेलने पड़े। इतने गंभीर जख्मों के बावजूद वे घुटनों के बल दुश्मन की ओर बढ़े और ग्रेनेड फेंककर ठिकाने का सफाया करने लगे। आगे से नेतृत्व करते हुए उन्होंने अपने फ़ौजियों का मार्गदर्शन करते हुए हमले पर डटे रहकर एक लगभग असंभव सैन्यकार्य को सफलतापूर्वक पूरा किया। ऐसा उन्होंने दुश्मन की ओर से हो रही भारी गोलाबारी का सामना करते हुए और अपनी सुरक्षा की बिल्कुल परवाह न करते हुए किया। अंत में कैप्टन बत्रा अपने ही जख्मों का शिकार हो गए।
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