बाना सिंह का जन्म जम्मू और कश्मीर राज्य की एक तहसील 'रणवीर सिंह पोहा' में 6 जनवरी 1949 को हुआ। जब वे भारतीय सेना की जम्मू और कश्मीर लाइट इन्फैन्ट्री में भर्ती हुए तब वे मात्र 19 साल के थे। बाना सिंह की तरक्की सूबेदार मेजर के पद तक हुई। जून 1987 में पाकिस्तान के खिलाफ 'साल्तोरो रिज़' सियाचिन में हुए संघर्ष के दौरान उनके साहस तथा कुशल नेतृत्व के लिए भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परम वीर चक्र से उन्हें नवाजा गया।
आज वे जम्मू के पास के एक छोटे से गाँव 'कडयाल' में रहते हैं। यह समय इस बहादुर सैनिक की दूसरी पारी का है। बाना सिंह अपने खेतों में काम करते हुए, अनुशासित जीवन जीते हैं तथा सादा भोजन करते हैं। उनके लिए जीवन का आकर्षण आज भी बना हुआ है। वे खेतों में कड़ी मेहनत करते हुए बेहद खुश रहते हैं। मौसम और फसलें बदलती रहती हैं पर उनकी दिनचर्या वर्ष भर एक समान ही रहती है।
जनवरी के महीने में बाना सिंह नयी दिल्ली जाते हैं। उनके लिए यह साल का सबसे महत्त्वपूर्ण समय है वे गणतंत्र दिवस की परेड में हिस्सा लेते हैं। दिल्ली के लिए रवाना होने से पूर्व वे अपने सभी युद्ध-पदक निकालकर जी भरकर उन्हें चमकाते हैं। सियाचिन के उन जमा देने वाली ठंड से भरे कठिन दिनों को और अपने द्वारा लड़े गए युद्ध को याद करना उन्हें एक अपूर्व संतोष देता है।
उनके लिए ऐसा ही एक और गर्व का अभूतपूर्व क्षण था, जब उनके नाम पर दिया जाने वाला सम्मान, उन्हीं के नाम के परेड ग्राउंड में उन्हीं के पुत्र राजेन्द्र सिंह को दिया गया। उनके बेटे ने भी उसी रेजिमेंट, 8 जम्मू और कश्मीर लाइट इन्फैन्ट्री को ज्वाइन किया, जहाँ से आर्मी में बाना सिंह के सैनिक जीवन की शुरुआत हुई थी।
बहुत बार मैंने सोचा,
शांति आ गई जबकि वास्तव में वह बहुत दूर थी
सियाचिन, भारत और पाकिस्तान के बीच हमेशा से विवाद का एक मुद्दा रहा है। दोनों ही देश अपनी सीमाएँ खींच चुके थे, लेकिन बर्फ से ढके. एक छोटे से पहाड़ी इलाके पर किसी का ध्यान नहीं गया। कदाचित्, दोनों ही पक्ष ऐसा मान बैठे थे कि वे उस इलाके मैं कभी अपनी पैठ जमाने का प्रयास नहीं करेंगे, क्योंकि वहाँ की अत्यंत सर्व परिस्थितियों में जीवन बेहद चुनौतीपूर्ण है, यहाँ तक कि वहाँ साँस लेना भी मुश्किल है। लेकिन कुछ समय बाद ही वहाँ कुछ संदिग्ध गतिविधियाँ शुरू हो गईं। पाकिस्तान ने भारतीय क्षेत्र मैं आने वाली 80 स्क्वायर किलोमीटर जमीन चीन को सौंप दी। जब पाकिस्तान और चीन ने अनुसंधान आदि के नाम पर वहाँ अवैध गतिविधियाँ शुरू कीं तब भारत सचेत हुआ और उसने ग्लेशियर के 'साल्तोरो रिज़' पर अधिकार करने के लिए कदम बढ़ाया। परिणामस्वरूप पाकिस्तान ने भी अपनी सेनाओं को भारत की सीमा में अपनी चौकी स्थापित करने का आदेश दे दिया। उस चौकी का नाम कायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना के नाम पर 'कायद चौकी' रखा गया।
सियाचिन में एक भयंकर युद्ध लड़ा गया, जिसके कारण दोनों ही मुल्कों को भारी दुःख और कष्ट का सामना करना पड़ा। यही नहीं, इस युद्ध ने तो वहाँ की प्रकृति की शांति और मौन को भी भंग कर दिया।.
यह नायब सूबेदार बाना सिंह और उनके साथियों के लिए कूच की पुकार थी। वे
अपने एके 47 राइफ़ल्स से लैस होकर बर्फ से ढके इलाके से पैदल गुज़रने लगे। उन्हें
*19000 फीट की ऊँचाई पर होना था, जहाँ दिन-रात बर्फीली हवाएँ चलती थीं। बर्फीली
आँधियों के कारण कुछ दिखाई न पड़ता था। फिर भी वे इधर-उधर बिखरे अपने साथियों
के शव देख सकते थे।
2/ लेफ्टिनेंट राजीव पांडे, नायब सूबेदार हेमराज तथा दस अन्य जवान, पहली पेट्रोल (Patrol) का हिस्सा थे। वे स्कीइंग, पर्वतारोहण तथा सर्वाधिक विकट परिस्थितियों में भी लड़ने के लिए प्रशिक्षित थे। उन्होंने शून्य से कम तापमान में भी आरोहण के लिए रस्सी का इंतज़ाम करते हुए अपने को संभाला। पाकिस्तानियों द्वारा कब्ज़े में ली गई चौकी से • केवल 500 मीटर की दूरी पर मौजूद, 2/लेफ्टिनेंट पांडे ने रेडियो द्वारा अपने अधिकारियों से आगे बढ़ने की अनुमति माँगी। उन्हें इसकी अनुमति दे दी गई, किंतु यह जानकारी नहीं थी कि पाकिस्तानी एस.एस. जी. कमांडो पेट्रोलिंग पर थे। जैसे ही हमारे सैनिक उनके फायरिंग रेंज में आए वैसे ही उन्हें गोली मार दी गई।
भारतीय सेना के वरिष्ठ अधिकारी तथा स्वयं रक्षामंत्री 'सोनम चौकी' पर पहुँचे। वे इतने क्रूरतम तरीके से अपने सैनिकों की हत्या के कारण सदमे में थे। कर्नल राय जो इस 'ऑपरेशन की देखरेख कर रहे थे, बहुत क्रोधित थे। उन्होंने अपने अधिकारियों से 'कायद चौकी' पर अधिकार करने का एक और मौका देने के लिए आग्रह किया। दो ऑफिसर, तीन जे.सी.ओ. और 57 सैनिक इस कार्य के लिए चुने गए। नायब सूबेदार बाना सिंह प्रारंभ में उस दल का हिस्सा नहीं थे। उन्हें कर्नल राय की सलाह पर इस दल में शामिल किया गया था। हमेशा की तरह बिना समय व्यर्थ किए बाना सिंह ने सामान बाँधा और उस दल में शामिल हो गए। 2/लेफ्टिनेंट पांडे तथा उनकी टीम की शहादत से हमारी सेना को हुए नुकसान का प्रतिशोध लेने के लिए 'ऑपरेशन राजीव' आरंभ किया गया।
22 जून को यह टीम कायद चौकी पहुँचने के लिए रवाना हुई। दो सैनिकों को यहाँ की जटिलतम प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण अपने प्राण गँवाने पड़े। उनकी मौत हाइपोथर्मिया से हुई। इस तरह यह दूसरा प्रयास भी तेज़ हवाओं, बर्फ़बारी और साँस लेने में होने वाली दिक्कत की वजह से लगभग असफल सिद्ध हुआ। टीम अपने कैंप में वापस चली गई। वे थोड़े निराश ज़रूर थे, लेकिन उनके हौसले कमज़ोर नहीं थे। उन्होंने आशा नहीं छोड़ी थी। वे कैंप में क्रोधित कर्नल राय से मिले।
'हमारी जूता परेड हुई' अर्थात् हमें डाँट-फटकार के लिए बुलाया गया था। कर्नल राय ने अपने सैनिकों को पूरी दृढ़ता के साथ बताया कि उन्हें निस्संदेह रूप से 'कायद चौकी' चाहिए। "हमें उस चौकी पर कब्जा करना ही है, क्योंकि हम राजीव तथा उनके साथियों की शहादत को ऐसे ही व्यर्थ नहीं जाने दे सकते, हमें इसका प्रतिशोध लेना ही होगा", वे गरजे। बाना सिंह ने कर्नल राय के गुस्से को जायज़ ठहराया। उन्हें लगा कि यह उन सबका कर्त्तव्य था और इसलिए यह करना ही होगा।
अगले दिन 24 जून को फिर रस्सियाँ बाँधी गईं और मेजर विरेन्दर सिंह ने हमले का नेतृत्व किया। उन्होंने किसी भी परिस्थिति में सैनिकों को पीछे न हटने के लिए चेतावनी दी। ऊँचाई पर हाड़ जमा देने वाली ठंड तथा जोखिम भरी प्राकृतिक बनावट में लड़ने के खामियाज़े भी भुगतने पड़े। प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण सैनिकों ने अपनी जानें गवाई या वे पर्वत के बीच की गहरी खाइयों में जा गिरे। ऊपर, ऊँचाई पर छाई धुंध व अत्यधिक कम रोशनी के कारण दुश्मन हमारे सैनिकों पर नज़र नहीं रख सका। वे यह भी सोच रहे थे कि भारतीय सैनिक ऐसी परिस्थिति में कभी सफल नहीं हो सकेंगे। उन्हें इस बात का तब कम ही आभास था कि बहादुर भारतीय सैनिक बाना सिंह के साथ कुछ और सैनिक भी हैं जो मौसम और आँधी के रोके नहीं रुकेंगे। वे दुश्मन की ओर कायद पोस्ट की जगह को फिर से हासिल करने के लिए इंच दर इंच बढ़ते गए।
कायद चौकी, जून 1987- बहादुरी की एक दास्तान
नायब सूबेदार बाना सिंह कुछ अन्य सैनिकों के साथ दुश्मन की ओर बढ़ने लगे। वे कायद चौकी से 15 मीटर की दूरी पर कुछ अन्य सैनिकों की प्रतीक्षा में रुके। बाना सिंह और उनके साथियों ने पूरी रात जैसे बर्फ में जमते जमते बिताई। लगातार बर्फबारी के बावजूद वे सभी खतरों से जूझते हुए आगे बढ़े, लेकिन चतुराई दिखाते हुए उन्होंने ग्रेनेड फेंककर चौकी पर हमला किया। बाना सिंह ने खंदक के भीतर ग्रेनेड फेंका और बाहर से उसे बंद कर दिया। कुछ पाकिस्तानी सैनिक उनकी ओर भाग आए और कुछ मारे गए। इतने में मेजर वीरेन्दर सिंह और उनकी टुकड़ी भी बाना सिंह के साथ आकर जुड़ गई। जो पाकिस्तानी सैनिक वापस खंदक पर चढ़ने का प्रयास कर रह थे, वे मेजर वीरेन्दर और उनके सिपाहियों द्वारा लाइट मशीनगन से की गई फायरिंग में मारे गए।
बाना सिंह ने पाकिस्तानियों से कायद चौकी पुनः हासिल करने में अनुकरणीय साहस, नेतृत्व क्षमता तथा बुद्धिमानी का प्रदर्शन किया। मेजर वीरेन्दर के गंभीर रूप से घायल हो जाने पर बाना सिंह ने मेजर वीरेन्दर की इच्छा के अनुरूप दुश्मन को जिन्दा पकड़ लेने के लिए आश्वस्त किया।
भारत की सीमा से दुश्मन को खदेड़ दिया गया। भारत के वीर सैनिकों ने मातृभूमि की के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध की और अपनी तलवार की आन रख ली। सुरक्षा मेजर वीरेन्दर हमले को झेलकर जीवित बचे; राइफल मैन ओम राज, जो देश के लिए लड़ते-लड़ते शहीद हो गए, उन्हें मेजर वीरेन्दर के साथ वीर चक्र से सम्मानित किया गया। 27 जून, 1987 को, ब्रिगेड कमांडर ब्रिगेडियर सी. एस. नुग्याल कायद चौकी पहुँचे और + उन्होंने बाना सिंह को गले लगा लिया। उन्होंने घोषणा की कि उस दिन से उस चौकी का नाम 'बाना टॉप' होगा।
नायब सूबेदार बाना सिंह को कठिनतम परिस्थितियों में विशिष्ट वीरता तथा नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन करने के लिए परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।
'ऑपरेशन राजीव' को भारतीय सेना के सैनिकों तथा अधिकारियों द्वारा दिखाए गए अद्भुत साहस तथा शौर्य के लिए याद किया जाता रहेगा। कायद चौकी की जीत उन सभी सैनिकों तथा अधिकारियों, जिन्होंने युद्ध लड़ा तथा जिन्होंने युद्ध का परोक्ष रूप से संचालन किया, सभी के सम्मिलित प्रयासों का परिणाम थी। उनके प्रयासों का सम्मान करते हुए परम वीर चक्र के साथ एक महा वीर चक्र, सात वीर चक्र तथा एक सेना मेडल की भी घोषणा की गई। कमांडिंग ऑफिसर तथा कमांडर उत्तम युद्ध सेवा पदकों से सम्मानित किए गए।
No comments:
Post a Comment