Friday, 28 October 2022

सूबेदार जोगिंदर सिंह सिख रेजीमेंट परमवीर चक्र विजेता

आइए, पढ़ते हैं भारत-चीन युद्ध के एक और वीर जांबाज की प्रेरणादायक कहानी। उनका नाम है जोगिन्दर सिंह। जोगिन्दर सिंह ने जब दुश्मनों की एक बहुत बड़ी टुकड़ी को पास आते देखा तो वे एक क्षण के लिए भी न घबराए और अपने सैनिकों पर होने वाले आक्रमण को रोकने के लिए एक अडिग स्तंभ की तरह खड़े हो गए। ऐसा था जोगिन्दर सिंह का साहसा


जोगिन्दर सिंह का जन्म 28 सितंबर 1921 को पंजाब के मोगा जिले के एक छोटे से गाँव महाकलों में हुआ था। वे एक अच्छे विद्यार्थी थे और स्कूल में पढ़ाई जारी रखना चाहते थे, परंतु ऐसा हो न पाया। उनके माता-पिता गरीब थे और पढ़ाई का खर्चा उठा पाने में असमर्थ थे। लगता है उनका जन्म किसी विशेष और सम्माननीय कार्य के लिए ही हुआ था। जोगिन्दर सिंह सेना में भर्ती हो गए। वे खेत में काम करने वाले किसान के बेटे थे, कठिनाइयों से जूझना और कड़ी मेहनत करना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी। भारतीय सेना के मेहनती जवान जोगिन्दर सिंह अपने कर्तव्य निभाते हुए भी पढ़-लिखकर ● आगे बढ़ने का सपना भुला नहीं पाए थे। उन्होंने जल्द ही सेना की विभागीय परीक्षाएँ पास कर लीं और यूनिट इन्सट्रक्टर बन गए। यह उनके परिवार के लिए बहुत गौरव और खुशी का समाचार था। उनकी यूनिट के जवान उनकी बहुत इज्जत करते थे, क्योंकि वे स्वयं एक समर्पित और अनुशासित सैनिक थे। उनके व्यक्तित्व ने जवानों को प्रेरित किया और भारतीय सेना को गौरवान्वित किया।

1962 के भारत और चीन के युद्ध में जोगिन्दर सिंह बूम ला, तवाँग, जो कि नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफ़ा) में था, वहाँ तैनात थे। उनकी बहादुरी के लिए भारत सरकार ने उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया। जोगिन्दर सिंह इस युद्ध में लड़ते हुए शहीद हुए थे।

बूम ला, तवांग, नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा), 1962

सन् 1962 में बूम ला, तवांग के करीब स्थित तोंगपेन ला में घमासान युद्ध हुआ था। यह इलाका नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफ़ा) कहलाता था। आज इसे हम अरुणाचल प्रदेश के नाम से जानते हैं। युद्ध का बिगुल अचानक बज उठा और खेल में मग्न सैनिक चौकने हो गए। युद्ध सन्निकट था। लखनऊ में होने वाला बॉस्केट बॉल भी दिया गया। सैनिकों को अपनी बटालियन में तुरंत वापस पहुँचने का संदेश दिया । सिख रेजिमेंट को जयपुर से (नेका) में तैनात होने का आदेश दिया गया। सैनिकों की बूम ला, तवाँग तक पहुँचने की यात्रा दुर्गम ज़रूर थी. परंतु यह उनके लिए प्रकृति के सौंदर्य को करीब से देखने और छू लेने का भी अवसर था। इस यात्रा में सैनिकों ने गा घाटी के जंगलों से गुज़रते हुए बोमडिला के घुमावदार रास्तों को पार किया। इसके बाद दिसँग की उतराई थी और बर्फ से जमी सेला झील को देखना दुर्लभ दृश्य था। पहुँचने का यह रास्ता अपने दिलकश नजारों से जवानों का मन तो मोह रहा था, काश यह प्राकृतिक सौंदर्य और कुदरत की असीम शांति दुश्मन को युद्ध न करने के लिए प्रेरित कर पाती, पर ऐसा नहीं हुआ।

युद्ध तो होना निश्चित था। सूबेदार जोगिन्दर सिंह पलटन के इंचार्ज थे। वे तजुर्बेकार और बलवान योद्धा थे। जवान उनकी बहुत इज्जत करते थे। उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध और 1947-48 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में भाग लिया था और वहाँ अर्जित युद्ध लड़ने की तकनीकों और कौशल का विराट अनुभव उनके पास था। जोगिन्दर सिंह मँझे हुए योद्धा थे। उनके साथ केवल 29 सैनिक थे। सैनिकों के पास गर्म कपड़ों की कमी थी और लड़ने के लिए आधुनिक हथियार भी नहीं थे। परिस्थितियों और समय की नजाकत को समझते हुए ये भाँप चुके थे कि यह युद्ध साहस, समझदारी और बुद्धिमत्ता मे ही जीता जा सकता है। उन्होंने अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया और अंत समय तक उन्हें प्रेरित करते रहे।

युद्ध लड़ने की शुरू कर दी गई। सैनिकों ने छुपने और सुरक्षित रहने के लिए खाइयाँ खोदनी शुरू कर दीं। जोगिन्दर सिंह और उनकी पलटन के लिए मैदान साफ़ कर दिया गया। असम राइफल्स के सैनिक और पैरामिलिट्री फार्सेज पहले से वहाँ मौजूद थे। चीनी सेना ने 20 अक्तूबर को भारतीय पोस्ट नमका चू पर हमला कर दिया और तवाँग की ओर बढ़ने लगी। यह वही पोस्ट थी जहाँ जोगिन्दर सिंह और उनके जवान तैनात थे। चीनी फौज ने बंकर बनाने शुरू कर दिए और वे हमले की तैयारी में जुट गए

जोगिन्दर सिंह ने अपने सैनिकों को इकट्ठा किया और उन्हें चीनी सैनिकों के हमले की आशंका के बारे में बताया।

चौनी फ़ौज ने 20 अक्तूबर 1962 को सवेरे 5.30 बजे तवाँग पोस्ट पर हमला कर दिया। तवाँग पोस्ट के रसोईघर में सुबह की चाय बन रही थी। सिख रेजिमेंट के सैनिक जवाबी हमले के लिए तुरंत तैयार हो गए। इस जवाब से चीनी फौज हैरत में पड़ गई। उनके बहुत से सैनिक मारे गए। कुछ ही समय में चीनी फौज ने दूसरा जबरदस्त धावा बोल दिया। चारों तरफ हाहाकार मच गया। भारतीय सैनिक 'जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल' का जयघोष करते हुए युद्ध के मैदान में कूद पड़े। हालाँकि जोगिन्दर सिंह ने बहुत वीरता और धैर्य से चीनी आक्रमण का सामना किया, परंतु सच्चाई तो यह थी कि उनके पास बहुत कम सैनिक और गोला बारूद था। ऐसे समय में यह जरूरी था कि सैनिकों का मनोबल बना रहे। इसके लिए जोगिन्दर सिंह ने हर संभव प्रयास किए। उन्होंने सैनिकों को याद दिलाया कि युद्धभूमि में साहस और वीरता से लड़ना प्रत्येक सैनिक का कर्त्तव्य है। वे यह युद्ध अपनी मातृभूमि की आन, बान और शान के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें अपनी जान की परवाह किए बगैर चीनी फ़ौज का डट कर सामना करना चाहिए। वास्तव में हुआ भी कुछ ऐसा ही। जोगिन्दर सिंह बुरी तरह से घायल हो गए थे फिर भी वे अपनी मशीनगन (एल.एम.जी.) से आक्रमण करते रहे। उनके सैनिक भी पीछे नहीं हटे। सिख सैनिकों ने अपनी बंदूकों पर बायोनेट लगाए और 'जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल' का जयघोष करते हुए चीनी कैंपों पर नए जोश के साथ टूट पड़े।


सूबेदार काला सिंह, सूबेदार जोगिन्दर सिंह के बहुत करीब और अजीज थे, उन्होंने बुद्ध की इस घटना को याद करते हुए बताया कि चीनी सैनिक यह देखकर बुरी तरह से हैरान हो गए थे, जब उन्होंने सिख रेजिमेंट के जवानों को तूफान की तरह चीनी कैंप की और बढ़ते हुए देखा था— उनकी दाढ़ियाँ खुली थीं और हवा में लहरा रही थीं। वे बहुत कम थे पर उनको देखकर लग रहा था कि वे चीनी कैंप पर कहर ढा देंगे। अपने सैनिकों का नेतृत्व करते हुए जोगिन्दर सिंह बुरी तरह घायल होने पर भी लड़ते रहे और लगातार अपने सैनिकों का साहस बढ़ाते रहे। भारतीय सैनिकों द्वारा यह युद्ध धैर्य, समर्पण और संपूर्ण ऊर्जा के साथ लड़ा गया। अंत में जोगिन्दर सिंह घायल अवस्था में ही ज़मीन पर गिर गए और युद्ध की हलचल में ही बर्फ़ की परत के नीचे दब गए।

जोगिन्दर सिंह मरे नहीं, यह सच है कि एक सैनिक कभी नहीं मरता। चीन ने उन्हें युद्ध बंदी बना लिया। वे चीन से वापिस नहीं आ पाए।

सूबेदार जोगिन्दर सिंह को उनकी कर्तव्यनिष्ठा, प्रेरणादायक नेतृत्व और अदाय साहस के लिए परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। जब उन्हें मरणोपरांत परम वीर ने चक्र से सम्मानित किया गया तब यह जानकर चीन सरकार ने उनकी अस्थियाँ भारत सरकार को सौंप दीं।

प्रशस्ति पत्र

जे सी-4547 सूबेदार जोगिन्दर सिंह, सिख रेजिमेंट (लापता) (पुरस्कार की प्रभावित तिथि 23 अक्तूबर 1962)

सूबेदार जोगिन्दर सिंह उत्तर पूर्वी सीमा पर तोंगपेन ला के समीप एक पहाड़ी पर स्थित रक्षा चौकी पर सिख रेजिमेंट की एक प्लाटून के कमाण्डर थे। 23 अक्तूबर 1962 को प्रात: साढ़े पाँच बजे चीनियों ने वमला के मध्यवर्ती क्षेत्र में इस आशय से बहुत भारी आक्रमण किया कि वे उस मार्ग से तवांग तक पहुँच सकेंगे। शत्रु की सब से आगे वाली बटालियन ने पहाड़ी पर दो-दो सौ सैनिकों की तीन टुकड़ियाँ बना कर आक्रमण किया। सूबेदार जोगिन्दर सिंह और उनके जवानों ने पहली टुकड़ी को आते ही काट गिराया तथा अत्यधिक क्षति होने के कारण शत्रु का आक्रमण कुछ समय के लिए रुक गया। कुछ ही मिनटों में शत्रु की दूसरी टुकड़ी ने भी आक्रमण किया और उसका भी पहली के समान ही हाल हुआ। परंतु तब तक प्लाटून के आधे जवान समाप्त हो चुके थे। सूबेदार जोगिन्दर सिंह की जाँघ पर घाव हो गया था, परंतु उन्होंने पीछे हटने से इन्कार कर दिया। उनके स्फूर्तिदायक नेतृत्व में लड़ती हुई प्लाटून भी अपने स्थान पर अडिग रही और पीछे नहीं हटी। इसी समय उस स्थान पर तीसरी बार आक्रमण किया गया। सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने स्वयं हल्की मशीनगन संभाल ली और कई शत्रुओं को अपना निशाना बनाया। अत्यधिक क्षति होते हुए भी चीनी आगे बढ़ते गये। जब परिस्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई तो सूबेदार जोगिन्दर सिंह और उनके कुछ जवानों ने अपने स्थानों से बाहर निकल अपनी संगीनें तान लीं और बढ़ते हुए चीनियों पर जा टूटे तथा शत्रु के अधिकार में आने से पूर्व उन्होंने कई एक को संगीने घोंप कर समाप्त कर दिया।

इस सारी मुठभेड़ में सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने कर्तव्यनिष्ठा, स्फूर्तिदायक नेतृत्व तथा उच्चतम शौर्य का प्रदर्शन किया।

गज़ट ऑफ़ इंडिया नोटिफिकेशन सं. 68- प्रेसी./62

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