Sunday, 12 November 2023

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Monday, 7 November 2022

मेजर होशियार सिंह परमवीर चक्र विजेता

परमवीर चक्र विजेता होशियार सिंह

हरियाणा के सोनीपत जिले के सिसना नामक गाँव में होशियार सिंह नाम का मेधावी बालक था। 5 मई 1936 को जन्मे होशियार सिंह के माता-पिता का नाम मथुरी देवी तथा चौधरी हीरा सिंह था। होशियार सिंह का परिवार खेती-किसानी से जुड़ा था। वे कृषि कार्यों में अपने माता-पिता को पूरा-पूरा सहयोग देते थे।


होशियार सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालय में प्राप्त की और उसके पश्चात् वे रोहतक के जाट उच्च प्राथमिक विद्यालय तथा जाट कॉलेज चले गए। पढ़ने-लिखने में वे बहुत होशियार थे। मैट्रिक की परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। वे वॉलीबॉल के उच्चकोटि के खिलाड़ी थे और जल्द ही पंजाब टीम के कप्तान बन गए, इसके फलस्वरूप उनका चयन राष्ट्रीय टीम के लिए हो गया।

होशियार सिंह एक ऐसे गाँव के निवासी थे जहाँ के 250 से भी अधिक लोगों ने भारतीय सेना में अपनी सेवाएँ दी थीं। ऐसी पृष्ठभूमि के कारण भारतीय सेना में शामिल होने की उनकी तीव्र इच्छा थी। सन् 1957 में एक सिपाही के रूप में वे 2 जाट रेजिमेंट में शामिल हुए। छह वर्ष के बाद प्रथम प्रयास में ही पदोन्नति परीक्षा उत्तीर्ण कर वे ऑफ़िसर बन गए। 30 जून 1963 में वे ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट में अधिकृत (कमीशंड) हुए। नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफ़ा) में जब वे कार्यरत थे तभी इनकी बहादुरी के साथ-साथ इनके विलक्षण नेतृत्व कौशल पर लोगों की नज़र पड़ी। 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान बीकानेर सेक्टर में इन्होंने अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस ऑपरेशन के दौरान इन्होंने आगे बढ़कर अदम्य साहस तथा दृढनिश्चय का प्रदर्शन किया। अपने बहादुरी भरे कार्यों के लिए इन्होंने मेन्शन-इन-डिस्पैचेज़ भी प्राप्त किया। छह वर्ष बाद मिलने वाली इससे भी बड़ी एक और भूमिका इनकी प्रतीक्षा कर रही थी।

अदम्य साहस जो सामने आया

पश्चिमी मोर्चे पर 1971 में युद्ध शुरू होने के बाद ही शक्करगढ़ सेक्टर में ग्रेनेडियर रेजिमेंट का तीसरा बटालियन सैनिक कार्रवाई का नेतृत्व करने के लिए आगे बढ़ा। मेजर होशियार सिंह इस यूनिट के महत्त्वपूर्ण सदस्य थे। पहले दस दिनों के दौरान यह बटालियन तेजी से आगे बढ़ी। 15 दिसंबर को इस बटालियन को बसंतर नदी पर पुल बनाने का आदेश मिला। दुश्मन के सैन्य दस्तों ने नदी के दोनों किनारों पर गहरी सुरंगे बिछा रखी थीं और उनकी स्थिति बहुत मज़बूत थी। आगे बढ़ती हुई भारतीय सेना को भीषण गोलाबारी का सामना करना पड़ा और कठिनाइयों से जूझना भी पड़ा। लेकिन मेजर होशियार सिंह के साहसिक नेतृत्व के अधीन वे दृढ़तापूर्वक हमले का सामना करते रहे और अंत में उन्होंने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के जरपाल गाँव पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। दुश्मन की टुकड़ियों ने टैंकों की सहायता से आक्रमण करते हुए जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी।

मेजर होशियार सिंह एक सच्चे नायक थे। अगुवाई या नेतृत्व करते समय वे सदा एक प्रेरक की भूमिका में होते थे। वे अपने सैनिकों को विषम से विषम परिस्थितियों में भी सर्वोत्तम प्रदर्शन करने के लिए सदा प्रोत्साहित करते थे। उनका साहस सैनिकों को अपनी क्षमता के अनुसार श्रेष्ठतम प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित करता था। इनके ओजस्वी नेतृत्व की छत्रछाया में इनकी पलटन ने सभी आक्रमणों का डटकर प्रतिरोध किया और दुश्मनों को बुरी तरह हताहत करके उन्हें भयानक क्षति पहुँचायी।

16 दिसंबर की शाम तक पूर्वी मोर्चे पर युद्ध समाप्त हो गया था, परंतु पश्चिमी मोर्चे पर युद्ध अभी भी जारी था। 17 दिसंबर को दुश्मन सेना ने भारी तोपों की सहायता से अब दूसरा बड़ा हमला किया। मेजर होशियार सिंह दुश्मन की गोलियों से गंभीर रूप से जख्मी हो गए थे। लेकिन इसके बावजूद वे अपने सैनिकों के मनोबल को बढ़ाने के लिए एक खंदक (trench) से दूसरी खंदक की ओर बढ़ते गए। इसम समय उनको कोई रोक न सकता था। उन्होंने दुश्मन को भारी क्षति पहुँचाना जारी रखा जिसके कारण दुश्मन सैनिक पीछे हटने को विवश हो गए। इसमें दुश्मन के बहुत से सैनिकों की जान भी गई। जिनमें उनके कमांडिंग ऑफ़िसर लेफ्टिनेंट कर्नल मोहम्मद अकरम राजा भी थे।

इस प्रकार मेजर होशियार सिंह ने दुश्मन सेना को उलझाकर आगे बढ़ने से रोके रखा। उनका सैन्य दल इस प्रकार की असाधारण वीरता का प्रदर्शन कर पाया, तो इसका श्रेय दृढ़ प्रतिरोध, अपनी जान की परवाह न करना और उनके अदम्य साहस को जाता है। उन्होंने दुश्मन द्वारा उस क्षेत्र पर पुनः अधिकार करने के लिए किए जा रहे सभी प्रयासों को विफल कर दिया था। यही नहीं, होशियार सिंह ने उन सभी के लिए उदाहरण स्थापित कर दिया। वे गंभीर रूप से जख्मी थे, फिर भी उन्होंने उस ऑपरेशन के खत्म हो जाने तक वहाँ से हटने से इंकार कर दिया था। जबतक भारत विजयी नहीं हुआ तब तक उन्होंने युद्धभूमि को नहीं छोड़ा। निश्चित रूप से उनके द्वारा किया गया यह कार्य कर्तव्यपरायणता से भी आगे की बात थी। उनकी इस निष्ठा और पराक्रम को देखते हुए उन्हें युद्ध के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान, परम वीर चक्र प्रदान किया गया। मेजर होशियार सिंह 1971 के युद्ध के लिए अपने जीवन काल में ही परम वीर चक्र पाने वाले एकमात्र विजेता थे। मेजर होशियार सिंह एक कर्मठ अधिकारी होने के साथ-साथ अपने साथियों का

op

ध्यान रखने वाले व्यक्ति भी थे। युद्ध एवं शांति के समय जिन सैनिकों का वे नेतृत्व कर रहे होते थे, उन सभी के संबंध में उन्हें पूरी जानकारी होती थी। वे निरंतर कठिन अभ्यास एवं प्रशिक्षण पर जोर देते थे। उन्होंने कार्यक्षेत्र एवं युद्धक्षेत्र दोनों ही जगहों पर सौहार्द्र की भावना बढ़ाने में भरपूर योगदान दिया। जब वे भारतीय सैन्य अकादमी में कंपनी कमांडर के रूप में सेवारत थे, तब इनकी कंपनी को लगातार छह सत्रों में समग्र विजेता का खिताब मिला। यह रिकॉर्ड आज भी बरकरार है। सेवानिवृत्ति के पूर्व ये कर्नल के पद पर नियुक्त किए गए। दुर्भाग्यवश, 62 वर्ष की आयु में 6 दिसंबर 1998 को इन्हें दिल का दौरा पड़ा और इनका देहावसान हो गया। वे अपने पीछे अपनी पत्नी धन्नो देवी तथा तीन बेटों को छोड़ गए।

प्रशस्ति पत्र

मेजर होशियार सिंह,

(आई सी-14608), 3 ग्रेनेडियर्स । (पुरस्कार की प्रभावी तिथि-17 दिसम्बर 1971)

15 दिसंबर 1971 को ग्रेनेडियर्स की एक बटालियन को शक्करगढ़ सेक्टर में बसन्तर नदी के पार पुल पर एक मोर्चा स्थापित करने का काम सौंपा गया था। मेजर होशियार सिंह कंपनी के आगे बाएँ भाग को कमान कर रहे थे और उन्हें जरपाल में शत्रु क्षेत्र पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया गया था। शत्रु की स्थिति यहाँ बड़ी मज़बूत थी और शत्रु भारी संख्या में यहाँ मौजूद था। आक्रमण के दौरान इनकी कंपनी पर तेजी से गोले बरसाए गए और मीडियम मशीनगन से भारी गोलाबारी की गई। इस पर ये ज़रा भी विचलित नहीं हुए और शत्रु पर टूट पड़े। भीषण मुठभेड़ के बाद वे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुए। शत्रु ने प्रत्याक्रमण किया और 16 दिसंबर 1971 को तीन बार हमला किया और उनमें से दो बार उन्होंने बक्खतरबंद गाड़ियों की सहायता ली। भारी गोलाबारी और टैंकों से गोलों की बौछारों की चिंता न करते हुए मेजर होशियार सिंह एक खाई से दूसरी खाई में जाकर अपने जवानों को मज़बूती से अपने मोर्चों पर डटे रहने और शत्रु को पीछे धकेलने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। उनके साहस और नेतृत्व से प्रेरित होकर उनकी कंपनी ने सभी आक्रमणों को विफल कर दिया और शत्रु पक्ष को भारी जानी नुकसान पहुँचाया। 17 दिसंबर 1971 को शत्रु ने भारी तोपखाने की सहायता से एक और आक्रमण किया। शत्रु के गोले से गंभीर रूप से घायल होने पर भी मेजर होशियार सिंह अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की परवाह न करते हुए एक खाई से दूसरी खाई में जाते रहे। जब शत्रु के एक गोले से उनका एक मीडियम मशीनगन चालक घायल हो गया और उसे निष्क्रिय कर दिया तो मशीनगन से लगाकर गोलाबारी किए जाने की आवश्यकता को समझते हुए, उन्होंने भाग कर स्वयं उस मशीनगन का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया और शत्रु पक्ष को भारी जानी नुकसान पहुँचाया। शत्रु के आक्रमण को पूरी तरह विफल कर दिया गया और शत्रु अपने कमांडिंग ऑफ़िसर तथा तीन अन्य ऑफिसरों सहित 85 मृतकों को छोड़कर पीछे हट गए। बुरी तरह से घायल होने पर भी मेजर होशियार सिंह ने वहाँ से तब तक हटने से इंकार किया जब तक युद्ध-विराम नहीं हुआ।

इस पूरी संक्रिया के दौरान मेजर होशियार सिंह ने अति उत्कृष्ट वीरता, युद्ध में अदम्य मनोबल और भारतीय सेना की उच्चतम परंपरा के अनुकूल नेतृत्व का परिचय दिया।

गजट ऑफ इंडिया नोटिफिकेशन

Saturday, 29 October 2022

कैप्टन विक्रम बत्रा परमवीर चक्र विजेता

आपने वीरता की असंख्य कहानियाँ सुनी होंगी, लेकिन उन शहीदों और सैनिकों के त्याग का कोई सानी नहीं, जो स्वेच्छा से अपने देश और देशवासियों के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं। देशवासियों के प्रति उनकी चिंता और उनका प्रेम तथा शांति और देशभक्ति में अग्रणी होने का उनका दृढ आत्मविश्वास सराहनीय है। आम नागरिकों के लिए जो युद्ध- समाचारों के श्रोतामात्र होते हैं, उनके लिए सैनिकों द्वारा किया गया बलिदान अकल्पनीय होता है। विक्रम बत्रा केवल एक सैनिक ही नहीं थे, वे अपने 'जयघोष 'ये दिल मांगे मोर' में आने वाले शब्द 'मोर' की तरह थे। अर्थात् उस जीत का आधार थे। विक्रम बत्रा एक भावुक देशभक्त थे और युद्ध में मिली जीत ने उनके मनोबल को और भी बढ़ा दिया था।


श्री जी. एल. बत्रा एवं श्रीमती जय कमल बत्रा के पुत्र विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 at हुआ और हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों में इनका पालन-पोषण किया गया। इन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा डी.ए.वी. पब्लिक स्कूल, पालमपुर तथा केंद्रीय विद्यालय, पालमपुर से पूरी की।

डी.ए.वी. कॉलेज, चंडीगढ़ के दिनों में ही, विक्रम बत्रा के जीवन ने एक निर्णायक मोड़ लिया, जिससे वे रक्षा बलों का एक हिस्सा बन गए। अपनी बी.एससी. की डिग्री के दौरान ही इन्होंने उत्तरी क्षेत्र के एन.सी.सी. (एयर विंग) के 'सर्वोत्तम कैडेट' का तमगा प्राप्त किया था और जल्द ही वे अपने आरक्षित टिकट और तैयार वर्दी के साथ 'मर्चेंट नेवी' का हिस्सा बनने को तैयार थे, तभी अचानक उनके विचार बदल गए और उन्होंने भारतीय सेना में शामिल होने का निर्णय ले लिया। वे भारतीय सेना के 13 जम्मू और कश्मीर राइफ़ल्स में एक लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त हुए और उनकी पहली पोस्टिंग जम्मू और कश्मीर के बारामूला जिले के सोपोर में हुई थी।

13 जे. ए. के. राइफ़ल्स दस्ता कश्मीर के सोपोर में अपने विद्रोह प्रतिरोधक कार्रवाई ऑपरेशन की अवधि पूरी करके, शाहजहाँपुर की ओर जा रहा था। उसे वापस बुलाया गया, क्योंकि कारगिल में युद्ध प्रारंभ हो चुका था। 12 जून 1999 को इस रेजिमेंट को तोलोलिंग पर अधिकार करने हेतु 18 ग्रेनेडियर्स के लिए एक आरक्षित टुकड़ी के रूप में द्रास पहुँचने के लिए कहा गया। 17 जून को तोलोलिंग पर अधिकार के बाद 13 जे. ए. के. राइफ़ल्स के लिए अगला कार्य समुद्रतल से लगभग 15000 फीट की ऊंचाई वाले प्वाइंट 5140 पर अधिकार करना था। यह चोटी द्रास क्षेत्र की सबसे खतरनाक एवं दुर्गम चोटी थी। यहाँ पाकिस्तानी घुसपैठियों ने बंकरों में छिपकर मोर्चा संभाल रखा था। इस प्वाइंट पर पुनः अधिकार करने का अत्यंत जोखिमभरा कार्य डेल्टा कंपनी के लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा तथा ब्रावो कंपनी के लेफ्टिनेंट संजीव जामवाल को सौंपा गया था।

सबसे बड़ा कार्य था पर्वत पर चढ़ना। सभी को यह अच्छी तरह मालूम था कि चोटी तक पहुँचना बेहद चुनौतीपूर्ण काम होगा, क्योंकि दुश्मन इन धावा करने वाले सैनिकों पर निरंतर प्रभावी ढंग से गोलियाँ बरसा रहा था। "जब परिस्थितियाँ कठिन होती हैं तब मजबूत लोग ही चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्रिय हो जाते हैं इस कहावत को चरितार्थ करते हुए दोनों कंपनियाँ सभी अड़चनों का सामना करती हुई चढ़ाई करती रही। अपनी रणनीति के तहत, विक्रम बत्रा ने दुश्मनों पर सहसा आक्रमण कर चौंकाने के लिए अपनी टुकड़ी को विपक्षी टुकड़ी की विपरीत दिशा से ले जाने का निश्चय किया। दुश्मन के भशीनगन पोस्ट से भयंकर गोलाबारी शुरू हो गई थी। घुसपैठियों के गन पोस्ट पर ग्रेनेड फेंकने तथा आमने-सामने युद्ध के लिए विक्रम बत्रा और उनकी टीम बेहद तेज़ गति से आगे बढ़ी और आखिरकार उन्होंने चोटी पर अपना अधिकार जमा ही लिया। इतने प्रभावशाली ढंग से मानवनिर्मित और संचालित इस अभियान को पर्वतीय युद्ध के सबसे मुश्किल अभियानों में से एक माना जाता है। इस अभियान ने ही विक्रम बत्रा और उनके नेतृत्व कौशल को राष्ट्रीय सुर्खियों में तब्दील कर दिया था। उनकी इस अद्भुत सफलता को देशभर के टेलिविज़न स्क्रीन पर प्रसारित किया गया था। उनके इस अद्भुत शौर्य-प्रदर्शन का ही परिणाम था कि युद्धभूमि पर ही उन्हें कप्तान के पद पर नियुक्त कर दिया गया। इस हमले का सबसे आश्चर्यजनक पहलू था, भारतीय पक्ष से किसी का भी हताहत न होना।

इन सभी साहसिक कारनामों के पश्चात् कैप्टन विक्रम बत्रा ऐसे ही और वीरतापूर्ण पराक्रमों को पूरा कर प्रशंसा प्राप्त करने के लिए उत्सुक थे। जल्द ही और भी बहुत कुछ होना था। 13 जे. ए. के. राइफ़ल्स को द्रास सेक्टर से हटाकर प्वाइंट 4875 पर अधिकार करने के लिए मुश्कोह घाटी में भेज दिया गया। अपनी योग्यता सिद्ध कर देने के कारण, विक्रम और उनके साथियों को एक ऐसी सँकरी जगह का सफाया करने का कार्य सौंपा गया जो दुश्मन द्वारा बहुत ही संरक्षित थी। अपने मन में पिछली जीत की बाद को सैंजोकर वह उत्साहित टीम चतुराई से उस प्रभावी युद्ध में उलझ गई, लेकिन दुश्मन की ओर से हो रही भारी गोलाबारी ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। बिना विचलित हुए विक्रम दुश्मनों पर हमला करते रहे जिसके दौरान उन्होंने प्वाइट ब्लैक रेंज पर पाँच दुश्मनों को मार गिराया। शून्य से भी नीचे का तापमान और भोर का समय भी इन बहादुर सैनिकों के मनोबल को नहीं डिगा सका। जोश से भरे हुए कैप्टन बत्रा 'जय माता दी' के उद्घोष के साथ ही रोके न रुकने वाली पूरी शक्ति के साथ दुश्मन की सेना पर टूट पड़े। यह वह समय था जब एक घायल सैनिक को हटाते हुए उन पर प्राणघातक हमला हुआ। उन्होंने अपने साथी सैनिक को एक तरफ हटाते हुए कहा, 'तू बाल-बच्चेदार है, हट जा पीछे' और फिर खुद ही दुश्मन का सामना करने के लिए उठ खड़े हुए। तभी अचानक एक बम का गोला, सीधा उनकी कमर के पास आकर फटा और वे 'जय माता दी' कहते हुए धराशायी हो गए।

कैप्टन विक्रम बत्रा के इस बलिदान और साहसिक कार्य ने उनकी पलटन को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और उन लोगों ने उस चट्टान पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया जिसके परिणामस्वरूप इनकी पलटन को प्वाइंट 4875 पर पुनः अधिकार प्राप्त हो गया। उनके साहसिक कार्य, अतुलनीय पराक्रम एवं सहनशीलता को देखते हुए. भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार परम वीर चक्र से सम्मानित किया तथा प्वाइंट 4875 को 'कैप्टन विक्रम बत्रा टॉप' नाम दिया।

उनके बलिदान और सौहार्द की भावना को याद करते हुए भारतीय सेना ने अपनी कई इमारतों और छावनियों का नामकरण इनके नाम पर किया है। इनमें से कुछ हैं इलाहाबाद के 'सर्विस सलेक्शन सेंटर' के एक हॉल को 'विक्रम बत्रा ब्लॉक' नाम दिया गया, जबलपुर चौकी के एक रिहायसी इलाके का नाम 'कैप्टन विक्रम बत्रा इन्क्लेव' रखा गया तथा इंडियन मिलिट्री एकेडमी, देहरादून के संयुक्त कैडेट भोजनालय का नाम "विक्रम बत्रा मेस' रखा गया। जब वे अपने घर आखिरी बार गए थे, तब उनके एक मित्र ने उन्हें युद्ध में सतर्क रहने की सलाह दी थी और उस बात को सुनकर उन्होंने जवाब दिया, मैं या तो भारतीय विजय पताका फहराकर आऊँगा या फिर उसमें लिपटकर, लेकिन मैं आऊंगा जरूरा" इस महान शहीद का जीवन और कर्म आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरणा देता रहेगा।

द्रास सेक्टर में दुश्मन के पास अच्छी तरह घिरे हुए ठिकाने थे, जो कि स्वचालित हथियारों से भली-भाँति सुदृढ किए गए थे तथा जिन तक पहुँचने के रास्ते, लेह के संसाधनों की जीवन रेखा श्रीनगर-लेहमार्ग से होकर जाते थे और जोखिम भरे थे।

20 जून 1999 को कैप्टन विक्रम बत्रा, कमांडर डेल्टा कंपनी को प्वाइंट 5140 पर ऑपरेशन विजय के दौरान हमला करने का कार्य सौंपा गया। कैप्टन विक्रम बत्रा ने अपनी कंपनी के साथ उस जगह को पूर्व दिशा से घेर लिया तथा दुश्मनों को अनजान रखते हुए हमला करने योग्य दूरी पर आ पहुँचे। उस जाँबाज़ अधिकारी ने अपने दस्ते को फिर व्यवस्थित कर अपने फौजियों को दुश्मन के ठिकाने पर सीधे-सीधे शारीरिक हमला करने के लिए प्रोत्साहित किया। आगे रहकर अपने फौजियों का नेतृत्व करते हुए उस जाँबाज़ अधिकारी ने एक साहसिक हमले में दुश्मन पर झपटकर चार घुसपैठियों को आमने-सामने के युद्ध में मार गिराया।

7 जुलाई 1999 को प्वाइंट 4875 के इलाके में एक और ऑपरेशन के दौरान उनकी कंपनी को दोनों ओर नुकीली कटाई वाली एक संकरी जगह का सफाया करने का आदेश दिया गया, जिसपर दुश्मन के बड़े भारी तरीके से घिरे हुए ऐसे सुरक्षा ठिकाने थे, जो उस स्थल तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता बंद किए हुए थे।

ऑपरेशन को और तेज करने के लिए कैप्टन बत्रा ने दुश्मन के ठिकानों पर एक सैकरी पहाड़ी से हमला करने का निश्चय किया। हमले का नेतृत्व करते हुए उन्होंने दुश्मन को एक भयंकर आमने-सामने के युद्ध में उलझाकर पाँच दुश्मन सैनिकों को प्वाइंट ब्लॅकरेंज पर मार गिराया। इस सब के दौरान कैप्टन बत्रा को गंभीर जख्म झेलने पड़े। इतने गंभीर जख्मों के बावजूद वे घुटनों के बल दुश्मन की ओर बढ़े और ग्रेनेड फेंककर ठिकाने का सफाया करने लगे। आगे से नेतृत्व करते हुए उन्होंने अपने फ़ौजियों का मार्गदर्शन करते हुए हमले पर डटे रहकर एक लगभग असंभव सैन्यकार्य को सफलतापूर्वक पूरा किया। ऐसा उन्होंने दुश्मन की ओर से हो रही भारी गोलाबारी का सामना करते हुए और अपनी सुरक्षा की बिल्कुल परवाह न करते हुए किया। अंत में कैप्टन बत्रा अपने ही जख्मों का शिकार हो गए।

Friday, 28 October 2022

नायब सूबेदार बाना सिंह परमवीर चक्र विजेता

बाना सिंह का जन्म जम्मू और कश्मीर राज्य की एक तहसील 'रणवीर सिंह पोहा' में 6 जनवरी 1949 को हुआ। जब वे भारतीय सेना की जम्मू और कश्मीर लाइट इन्फैन्ट्री में भर्ती हुए तब वे मात्र 19 साल के थे। बाना सिंह की तरक्की सूबेदार मेजर के पद तक हुई। जून 1987 में पाकिस्तान के खिलाफ 'साल्तोरो रिज़' सियाचिन में हुए संघर्ष के दौरान उनके साहस तथा कुशल नेतृत्व के लिए भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परम वीर चक्र से उन्हें नवाजा गया।


आज वे जम्मू के पास के एक छोटे से गाँव 'कडयाल' में रहते हैं। यह समय इस बहादुर सैनिक की दूसरी पारी का है। बाना सिंह अपने खेतों में काम करते हुए, अनुशासित जीवन जीते हैं तथा सादा भोजन करते हैं। उनके लिए जीवन का आकर्षण आज भी बना हुआ है। वे खेतों में कड़ी मेहनत करते हुए बेहद खुश रहते हैं। मौसम और फसलें बदलती रहती हैं पर उनकी दिनचर्या वर्ष भर एक समान ही रहती है।

जनवरी के महीने में बाना सिंह नयी दिल्ली जाते हैं। उनके लिए यह साल का सबसे महत्त्वपूर्ण समय है वे गणतंत्र दिवस की परेड में हिस्सा लेते हैं। दिल्ली के लिए रवाना होने से पूर्व वे अपने सभी युद्ध-पदक निकालकर जी भरकर उन्हें चमकाते हैं। सियाचिन के उन जमा देने वाली ठंड से भरे कठिन दिनों को और अपने द्वारा लड़े गए युद्ध को याद करना उन्हें एक अपूर्व संतोष देता है।

उनके लिए ऐसा ही एक और गर्व का अभूतपूर्व क्षण था, जब उनके नाम पर दिया जाने वाला सम्मान, उन्हीं के नाम के परेड ग्राउंड में उन्हीं के पुत्र राजेन्द्र सिंह को दिया गया। उनके बेटे ने भी उसी रेजिमेंट, 8 जम्मू और कश्मीर लाइट इन्फैन्ट्री को ज्वाइन किया, जहाँ से आर्मी में बाना सिंह के सैनिक जीवन की शुरुआत हुई थी।

बहुत बार मैंने सोचा,

शांति आ गई जबकि वास्तव में वह बहुत दूर थी

सियाचिन, भारत और पाकिस्तान के बीच हमेशा से विवाद का एक मुद्दा रहा है। दोनों ही देश अपनी सीमाएँ खींच चुके थे, लेकिन बर्फ से ढके. एक छोटे से पहाड़ी इलाके पर किसी का ध्यान नहीं गया। कदाचित्, दोनों ही पक्ष ऐसा मान बैठे थे कि वे उस इलाके मैं कभी अपनी पैठ जमाने का प्रयास नहीं करेंगे, क्योंकि वहाँ की अत्यंत सर्व परिस्थितियों में जीवन बेहद चुनौतीपूर्ण है, यहाँ तक कि वहाँ साँस लेना भी मुश्किल है। लेकिन कुछ समय बाद ही वहाँ कुछ संदिग्ध गतिविधियाँ शुरू हो गईं। पाकिस्तान ने भारतीय क्षेत्र मैं आने वाली 80 स्क्वायर किलोमीटर जमीन चीन को सौंप दी। जब पाकिस्तान और चीन ने अनुसंधान आदि के नाम पर वहाँ अवैध गतिविधियाँ शुरू कीं तब भारत सचेत हुआ और उसने ग्लेशियर के 'साल्तोरो रिज़' पर अधिकार करने के लिए कदम बढ़ाया। परिणामस्वरूप पाकिस्तान ने भी अपनी सेनाओं को भारत की सीमा में अपनी चौकी स्थापित करने का आदेश दे दिया। उस चौकी का नाम कायदे आज़म मुहम्मद अली जिन्ना के नाम पर 'कायद चौकी' रखा गया।

सियाचिन में एक भयंकर युद्ध लड़ा गया, जिसके कारण दोनों ही मुल्कों को भारी दुःख और कष्ट का सामना करना पड़ा। यही नहीं, इस युद्ध ने तो वहाँ की प्रकृति की शांति और मौन को भी भंग कर दिया।.

यह नायब सूबेदार बाना सिंह और उनके साथियों के लिए कूच की पुकार थी। वे

अपने एके 47 राइफ़ल्स से लैस होकर बर्फ से ढके इलाके से पैदल गुज़रने लगे। उन्हें

*19000 फीट की ऊँचाई पर होना था, जहाँ दिन-रात बर्फीली हवाएँ चलती थीं। बर्फीली

आँधियों के कारण कुछ दिखाई न पड़ता था। फिर भी वे इधर-उधर बिखरे अपने साथियों

के शव देख सकते थे।

2/ लेफ्टिनेंट राजीव पांडे, नायब सूबेदार हेमराज तथा दस अन्य जवान, पहली पेट्रोल (Patrol) का हिस्सा थे। वे स्कीइंग, पर्वतारोहण तथा सर्वाधिक विकट परिस्थितियों में भी लड़ने के लिए प्रशिक्षित थे। उन्होंने शून्य से कम तापमान में भी आरोहण के लिए रस्सी का इंतज़ाम करते हुए अपने को संभाला। पाकिस्तानियों द्वारा कब्ज़े में ली गई चौकी से • केवल 500 मीटर की दूरी पर मौजूद, 2/लेफ्टिनेंट पांडे ने रेडियो द्वारा अपने अधिकारियों से आगे बढ़ने की अनुमति माँगी। उन्हें इसकी अनुमति दे दी गई, किंतु यह जानकारी नहीं थी कि पाकिस्तानी एस.एस. जी. कमांडो पेट्रोलिंग पर थे। जैसे ही हमारे सैनिक उनके फायरिंग रेंज में आए वैसे ही उन्हें गोली मार दी गई।

भारतीय सेना के वरिष्ठ अधिकारी तथा स्वयं रक्षामंत्री 'सोनम चौकी' पर पहुँचे। वे इतने क्रूरतम तरीके से अपने सैनिकों की हत्या के कारण सदमे में थे। कर्नल राय जो इस 'ऑपरेशन की देखरेख कर रहे थे, बहुत क्रोधित थे। उन्होंने अपने अधिकारियों से 'कायद चौकी' पर अधिकार करने का एक और मौका देने के लिए आग्रह किया। दो ऑफिसर, तीन जे.सी.ओ. और 57 सैनिक इस कार्य के लिए चुने गए। नायब सूबेदार बाना सिंह प्रारंभ में उस दल का हिस्सा नहीं थे। उन्हें कर्नल राय की सलाह पर इस दल में शामिल किया गया था। हमेशा की तरह बिना समय व्यर्थ किए बाना सिंह ने सामान बाँधा और उस दल में शामिल हो गए। 2/लेफ्टिनेंट पांडे तथा उनकी टीम की शहादत से हमारी सेना को हुए नुकसान का प्रतिशोध लेने के लिए 'ऑपरेशन राजीव' आरंभ किया गया।

22 जून को यह टीम कायद चौकी पहुँचने के लिए रवाना हुई। दो सैनिकों को यहाँ की जटिलतम प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण अपने प्राण गँवाने पड़े। उनकी मौत हाइपोथर्मिया से हुई। इस तरह यह दूसरा प्रयास भी तेज़ हवाओं, बर्फ़बारी और साँस लेने में होने वाली दिक्कत की वजह से लगभग असफल सिद्ध हुआ। टीम अपने कैंप में वापस चली गई। वे थोड़े निराश ज़रूर थे, लेकिन उनके हौसले कमज़ोर नहीं थे। उन्होंने आशा नहीं छोड़ी थी। वे कैंप में क्रोधित कर्नल राय से मिले।

'हमारी जूता परेड हुई' अर्थात् हमें डाँट-फटकार के लिए बुलाया गया था। कर्नल राय ने अपने सैनिकों को पूरी दृढ़ता के साथ बताया कि उन्हें निस्संदेह रूप से 'कायद चौकी' चाहिए। "हमें उस चौकी पर कब्जा करना ही है, क्योंकि हम राजीव तथा उनके साथियों की शहादत को ऐसे ही व्यर्थ नहीं जाने दे सकते, हमें इसका प्रतिशोध लेना ही होगा", वे गरजे। बाना सिंह ने कर्नल राय के गुस्से को जायज़ ठहराया। उन्हें लगा कि यह उन सबका कर्त्तव्य था और इसलिए यह करना ही होगा।

अगले दिन 24 जून को फिर रस्सियाँ बाँधी गईं और मेजर विरेन्दर सिंह ने हमले का नेतृत्व किया। उन्होंने किसी भी परिस्थिति में सैनिकों को पीछे न हटने के लिए चेतावनी दी। ऊँचाई पर हाड़ जमा देने वाली ठंड तथा जोखिम भरी प्राकृतिक बनावट में लड़ने के खामियाज़े भी भुगतने पड़े। प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण सैनिकों ने अपनी जानें गवाई या वे पर्वत के बीच की गहरी खाइयों में जा गिरे। ऊपर, ऊँचाई पर छाई धुंध व अत्यधिक कम रोशनी के कारण दुश्मन हमारे सैनिकों पर नज़र नहीं रख सका। वे यह भी सोच रहे थे कि भारतीय सैनिक ऐसी परिस्थिति में कभी सफल नहीं हो सकेंगे। उन्हें इस बात का तब कम ही आभास था कि बहादुर भारतीय सैनिक बाना सिंह के साथ कुछ और सैनिक भी हैं जो मौसम और आँधी के रोके नहीं रुकेंगे। वे दुश्मन की ओर कायद पोस्ट की जगह को फिर से हासिल करने के लिए इंच दर इंच बढ़ते गए।

कायद चौकी, जून 1987- बहादुरी की एक दास्तान

नायब सूबेदार बाना सिंह कुछ अन्य सैनिकों के साथ दुश्मन की ओर बढ़ने लगे। वे कायद चौकी से 15 मीटर की दूरी पर कुछ अन्य सैनिकों की प्रतीक्षा में रुके। बाना सिंह और उनके साथियों ने पूरी रात जैसे बर्फ में जमते जमते बिताई। लगातार बर्फबारी के बावजूद वे सभी खतरों से जूझते हुए आगे बढ़े, लेकिन चतुराई दिखाते हुए उन्होंने ग्रेनेड फेंककर चौकी पर हमला किया। बाना सिंह ने खंदक के भीतर ग्रेनेड फेंका और बाहर से उसे बंद कर दिया। कुछ पाकिस्तानी सैनिक उनकी ओर भाग आए और कुछ मारे गए। इतने में मेजर वीरेन्दर सिंह और उनकी टुकड़ी भी बाना सिंह के साथ आकर जुड़ गई। जो पाकिस्तानी सैनिक वापस खंदक पर चढ़ने का प्रयास कर रह थे, वे मेजर वीरेन्दर और उनके सिपाहियों द्वारा लाइट मशीनगन से की गई फायरिंग में मारे गए।

बाना सिंह ने पाकिस्तानियों से कायद चौकी पुनः हासिल करने में अनुकरणीय साहस, नेतृत्व क्षमता तथा बुद्धिमानी का प्रदर्शन किया। मेजर वीरेन्दर के गंभीर रूप से घायल हो जाने पर बाना सिंह ने मेजर वीरेन्दर की इच्छा के अनुरूप दुश्मन को जिन्दा पकड़ लेने के लिए आश्वस्त किया।

भारत की सीमा से दुश्मन को खदेड़ दिया गया। भारत के वीर सैनिकों ने मातृभूमि की के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध की और अपनी तलवार की आन रख ली। सुरक्षा मेजर वीरेन्दर हमले को झेलकर जीवित बचे; राइफल मैन ओम राज, जो देश के लिए लड़ते-लड़ते शहीद हो गए, उन्हें मेजर वीरेन्दर के साथ वीर चक्र से सम्मानित किया गया। 27 जून, 1987 को, ब्रिगेड कमांडर ब्रिगेडियर सी. एस. नुग्याल कायद चौकी पहुँचे और + उन्होंने बाना सिंह को गले लगा लिया। उन्होंने घोषणा की कि उस दिन से उस चौकी का नाम 'बाना टॉप' होगा।

नायब सूबेदार बाना सिंह को कठिनतम परिस्थितियों में विशिष्ट वीरता तथा नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन करने के लिए परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।


'ऑपरेशन राजीव' को भारतीय सेना के सैनिकों तथा अधिकारियों द्वारा दिखाए गए अद्भुत साहस तथा शौर्य के लिए याद किया जाता रहेगा। कायद चौकी की जीत उन सभी सैनिकों तथा अधिकारियों, जिन्होंने युद्ध लड़ा तथा जिन्होंने युद्ध का परोक्ष रूप से संचालन किया, सभी के सम्मिलित प्रयासों का परिणाम थी। उनके प्रयासों का सम्मान करते हुए परम वीर चक्र के साथ एक महा वीर चक्र, सात वीर चक्र तथा एक सेना मेडल की भी घोषणा की गई। कमांडिंग ऑफिसर तथा कमांडर उत्तम युद्ध सेवा पदकों से सम्मानित किए गए।


सूबेदार जोगिंदर सिंह सिख रेजीमेंट परमवीर चक्र विजेता

आइए, पढ़ते हैं भारत-चीन युद्ध के एक और वीर जांबाज की प्रेरणादायक कहानी। उनका नाम है जोगिन्दर सिंह। जोगिन्दर सिंह ने जब दुश्मनों की एक बहुत बड़ी टुकड़ी को पास आते देखा तो वे एक क्षण के लिए भी न घबराए और अपने सैनिकों पर होने वाले आक्रमण को रोकने के लिए एक अडिग स्तंभ की तरह खड़े हो गए। ऐसा था जोगिन्दर सिंह का साहसा


जोगिन्दर सिंह का जन्म 28 सितंबर 1921 को पंजाब के मोगा जिले के एक छोटे से गाँव महाकलों में हुआ था। वे एक अच्छे विद्यार्थी थे और स्कूल में पढ़ाई जारी रखना चाहते थे, परंतु ऐसा हो न पाया। उनके माता-पिता गरीब थे और पढ़ाई का खर्चा उठा पाने में असमर्थ थे। लगता है उनका जन्म किसी विशेष और सम्माननीय कार्य के लिए ही हुआ था। जोगिन्दर सिंह सेना में भर्ती हो गए। वे खेत में काम करने वाले किसान के बेटे थे, कठिनाइयों से जूझना और कड़ी मेहनत करना उनके लिए कोई नई बात नहीं थी। भारतीय सेना के मेहनती जवान जोगिन्दर सिंह अपने कर्तव्य निभाते हुए भी पढ़-लिखकर ● आगे बढ़ने का सपना भुला नहीं पाए थे। उन्होंने जल्द ही सेना की विभागीय परीक्षाएँ पास कर लीं और यूनिट इन्सट्रक्टर बन गए। यह उनके परिवार के लिए बहुत गौरव और खुशी का समाचार था। उनकी यूनिट के जवान उनकी बहुत इज्जत करते थे, क्योंकि वे स्वयं एक समर्पित और अनुशासित सैनिक थे। उनके व्यक्तित्व ने जवानों को प्रेरित किया और भारतीय सेना को गौरवान्वित किया।

1962 के भारत और चीन के युद्ध में जोगिन्दर सिंह बूम ला, तवाँग, जो कि नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफ़ा) में था, वहाँ तैनात थे। उनकी बहादुरी के लिए भारत सरकार ने उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया। जोगिन्दर सिंह इस युद्ध में लड़ते हुए शहीद हुए थे।

बूम ला, तवांग, नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा), 1962

सन् 1962 में बूम ला, तवांग के करीब स्थित तोंगपेन ला में घमासान युद्ध हुआ था। यह इलाका नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफ़ा) कहलाता था। आज इसे हम अरुणाचल प्रदेश के नाम से जानते हैं। युद्ध का बिगुल अचानक बज उठा और खेल में मग्न सैनिक चौकने हो गए। युद्ध सन्निकट था। लखनऊ में होने वाला बॉस्केट बॉल भी दिया गया। सैनिकों को अपनी बटालियन में तुरंत वापस पहुँचने का संदेश दिया । सिख रेजिमेंट को जयपुर से (नेका) में तैनात होने का आदेश दिया गया। सैनिकों की बूम ला, तवाँग तक पहुँचने की यात्रा दुर्गम ज़रूर थी. परंतु यह उनके लिए प्रकृति के सौंदर्य को करीब से देखने और छू लेने का भी अवसर था। इस यात्रा में सैनिकों ने गा घाटी के जंगलों से गुज़रते हुए बोमडिला के घुमावदार रास्तों को पार किया। इसके बाद दिसँग की उतराई थी और बर्फ से जमी सेला झील को देखना दुर्लभ दृश्य था। पहुँचने का यह रास्ता अपने दिलकश नजारों से जवानों का मन तो मोह रहा था, काश यह प्राकृतिक सौंदर्य और कुदरत की असीम शांति दुश्मन को युद्ध न करने के लिए प्रेरित कर पाती, पर ऐसा नहीं हुआ।

युद्ध तो होना निश्चित था। सूबेदार जोगिन्दर सिंह पलटन के इंचार्ज थे। वे तजुर्बेकार और बलवान योद्धा थे। जवान उनकी बहुत इज्जत करते थे। उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध और 1947-48 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में भाग लिया था और वहाँ अर्जित युद्ध लड़ने की तकनीकों और कौशल का विराट अनुभव उनके पास था। जोगिन्दर सिंह मँझे हुए योद्धा थे। उनके साथ केवल 29 सैनिक थे। सैनिकों के पास गर्म कपड़ों की कमी थी और लड़ने के लिए आधुनिक हथियार भी नहीं थे। परिस्थितियों और समय की नजाकत को समझते हुए ये भाँप चुके थे कि यह युद्ध साहस, समझदारी और बुद्धिमत्ता मे ही जीता जा सकता है। उन्होंने अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया और अंत समय तक उन्हें प्रेरित करते रहे।

युद्ध लड़ने की शुरू कर दी गई। सैनिकों ने छुपने और सुरक्षित रहने के लिए खाइयाँ खोदनी शुरू कर दीं। जोगिन्दर सिंह और उनकी पलटन के लिए मैदान साफ़ कर दिया गया। असम राइफल्स के सैनिक और पैरामिलिट्री फार्सेज पहले से वहाँ मौजूद थे। चीनी सेना ने 20 अक्तूबर को भारतीय पोस्ट नमका चू पर हमला कर दिया और तवाँग की ओर बढ़ने लगी। यह वही पोस्ट थी जहाँ जोगिन्दर सिंह और उनके जवान तैनात थे। चीनी फौज ने बंकर बनाने शुरू कर दिए और वे हमले की तैयारी में जुट गए

जोगिन्दर सिंह ने अपने सैनिकों को इकट्ठा किया और उन्हें चीनी सैनिकों के हमले की आशंका के बारे में बताया।

चौनी फ़ौज ने 20 अक्तूबर 1962 को सवेरे 5.30 बजे तवाँग पोस्ट पर हमला कर दिया। तवाँग पोस्ट के रसोईघर में सुबह की चाय बन रही थी। सिख रेजिमेंट के सैनिक जवाबी हमले के लिए तुरंत तैयार हो गए। इस जवाब से चीनी फौज हैरत में पड़ गई। उनके बहुत से सैनिक मारे गए। कुछ ही समय में चीनी फौज ने दूसरा जबरदस्त धावा बोल दिया। चारों तरफ हाहाकार मच गया। भारतीय सैनिक 'जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल' का जयघोष करते हुए युद्ध के मैदान में कूद पड़े। हालाँकि जोगिन्दर सिंह ने बहुत वीरता और धैर्य से चीनी आक्रमण का सामना किया, परंतु सच्चाई तो यह थी कि उनके पास बहुत कम सैनिक और गोला बारूद था। ऐसे समय में यह जरूरी था कि सैनिकों का मनोबल बना रहे। इसके लिए जोगिन्दर सिंह ने हर संभव प्रयास किए। उन्होंने सैनिकों को याद दिलाया कि युद्धभूमि में साहस और वीरता से लड़ना प्रत्येक सैनिक का कर्त्तव्य है। वे यह युद्ध अपनी मातृभूमि की आन, बान और शान के लिए लड़ रहे हैं। उन्हें अपनी जान की परवाह किए बगैर चीनी फ़ौज का डट कर सामना करना चाहिए। वास्तव में हुआ भी कुछ ऐसा ही। जोगिन्दर सिंह बुरी तरह से घायल हो गए थे फिर भी वे अपनी मशीनगन (एल.एम.जी.) से आक्रमण करते रहे। उनके सैनिक भी पीछे नहीं हटे। सिख सैनिकों ने अपनी बंदूकों पर बायोनेट लगाए और 'जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल' का जयघोष करते हुए चीनी कैंपों पर नए जोश के साथ टूट पड़े।


सूबेदार काला सिंह, सूबेदार जोगिन्दर सिंह के बहुत करीब और अजीज थे, उन्होंने बुद्ध की इस घटना को याद करते हुए बताया कि चीनी सैनिक यह देखकर बुरी तरह से हैरान हो गए थे, जब उन्होंने सिख रेजिमेंट के जवानों को तूफान की तरह चीनी कैंप की और बढ़ते हुए देखा था— उनकी दाढ़ियाँ खुली थीं और हवा में लहरा रही थीं। वे बहुत कम थे पर उनको देखकर लग रहा था कि वे चीनी कैंप पर कहर ढा देंगे। अपने सैनिकों का नेतृत्व करते हुए जोगिन्दर सिंह बुरी तरह घायल होने पर भी लड़ते रहे और लगातार अपने सैनिकों का साहस बढ़ाते रहे। भारतीय सैनिकों द्वारा यह युद्ध धैर्य, समर्पण और संपूर्ण ऊर्जा के साथ लड़ा गया। अंत में जोगिन्दर सिंह घायल अवस्था में ही ज़मीन पर गिर गए और युद्ध की हलचल में ही बर्फ़ की परत के नीचे दब गए।

जोगिन्दर सिंह मरे नहीं, यह सच है कि एक सैनिक कभी नहीं मरता। चीन ने उन्हें युद्ध बंदी बना लिया। वे चीन से वापिस नहीं आ पाए।

सूबेदार जोगिन्दर सिंह को उनकी कर्तव्यनिष्ठा, प्रेरणादायक नेतृत्व और अदाय साहस के लिए परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। जब उन्हें मरणोपरांत परम वीर ने चक्र से सम्मानित किया गया तब यह जानकर चीन सरकार ने उनकी अस्थियाँ भारत सरकार को सौंप दीं।

प्रशस्ति पत्र

जे सी-4547 सूबेदार जोगिन्दर सिंह, सिख रेजिमेंट (लापता) (पुरस्कार की प्रभावित तिथि 23 अक्तूबर 1962)

सूबेदार जोगिन्दर सिंह उत्तर पूर्वी सीमा पर तोंगपेन ला के समीप एक पहाड़ी पर स्थित रक्षा चौकी पर सिख रेजिमेंट की एक प्लाटून के कमाण्डर थे। 23 अक्तूबर 1962 को प्रात: साढ़े पाँच बजे चीनियों ने वमला के मध्यवर्ती क्षेत्र में इस आशय से बहुत भारी आक्रमण किया कि वे उस मार्ग से तवांग तक पहुँच सकेंगे। शत्रु की सब से आगे वाली बटालियन ने पहाड़ी पर दो-दो सौ सैनिकों की तीन टुकड़ियाँ बना कर आक्रमण किया। सूबेदार जोगिन्दर सिंह और उनके जवानों ने पहली टुकड़ी को आते ही काट गिराया तथा अत्यधिक क्षति होने के कारण शत्रु का आक्रमण कुछ समय के लिए रुक गया। कुछ ही मिनटों में शत्रु की दूसरी टुकड़ी ने भी आक्रमण किया और उसका भी पहली के समान ही हाल हुआ। परंतु तब तक प्लाटून के आधे जवान समाप्त हो चुके थे। सूबेदार जोगिन्दर सिंह की जाँघ पर घाव हो गया था, परंतु उन्होंने पीछे हटने से इन्कार कर दिया। उनके स्फूर्तिदायक नेतृत्व में लड़ती हुई प्लाटून भी अपने स्थान पर अडिग रही और पीछे नहीं हटी। इसी समय उस स्थान पर तीसरी बार आक्रमण किया गया। सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने स्वयं हल्की मशीनगन संभाल ली और कई शत्रुओं को अपना निशाना बनाया। अत्यधिक क्षति होते हुए भी चीनी आगे बढ़ते गये। जब परिस्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई तो सूबेदार जोगिन्दर सिंह और उनके कुछ जवानों ने अपने स्थानों से बाहर निकल अपनी संगीनें तान लीं और बढ़ते हुए चीनियों पर जा टूटे तथा शत्रु के अधिकार में आने से पूर्व उन्होंने कई एक को संगीने घोंप कर समाप्त कर दिया।

इस सारी मुठभेड़ में सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने कर्तव्यनिष्ठा, स्फूर्तिदायक नेतृत्व तथा उच्चतम शौर्य का प्रदर्शन किया।

गज़ट ऑफ़ इंडिया नोटिफिकेशन सं. 68- प्रेसी./62

Thursday, 27 October 2022

फौजी करम सिंह परम वीर चक्र विजेता

एक फ़ौजी का सफ़र

'दुश्मन नीढ़े सी। अस्सी तिन सी. ते चौथा तू हुण की करिए?” (दुश्मन बिल्कुल करीब है, हम तीन हैं और चौथे तुम ही हो, अब हमें क्या करना चाहिए?) जब एक सिपाही ने करम सिंह से ये बातें कहीं, उस वक्त करम सिंह की पतलून खून से सराबोर थी, क्योंकि वे और उनके साथी तब तक पहले पाकिस्तानी हमले का सामना कर चुके थे। यह उसके बाद होने वाला दूसरा हमला था और उनमें सिर्फ चार लोग ही बचे थे। न तो उनके पास पर्याप्त मात्रा में गोला-बारूद बचे थे और न ही उन्हें तुरंत पा सकने का कोई और साधन ही था। उसपर भी पाकिस्तानी सैनिकों की बड़ी भारी संख्या उन्हें अपनी चौकी की ओर बढ़ती हुई दिख रही थी। उनके सहयोगी मारे जा चुके थे। दुश्मन की गोलियाँ चट्टानों को भेद रही थीं और चट्टानों के उड़ते बिखरते टुकड़े सैनिकों को घायल कर रहे थे। लेकिन इन सबके बावजूद ये गोलियाँ चट्टानों से भी मजबूत भारतीय सैनिकों के मनोबल को तोड़ने में नितांत असमर्थ रहीं। देखते ही देखते घायल करम सिंह ने एक हथगोला उठाया और जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल' के जयघोष के साथ उसे हवा में उछाल दिया। हथगोले के विस्फोट से पाकिस्तानी सैनिकों का नियंत्रण जाता रहा। जदो अस्सी इत्थे जान दे दांगे तां साड़ी कीमत वध जावेगी' (यानी यदि हम यहाँ अपनी जान दे देते हैं, तो हमारी कीमत बढ़ जाएगी) करम सिंह ने विश्वास से भरी अपनी ऊँची गरजती आवाज में जैसे ही यह कहा वैसे ही सैनिकों का मनोबल बढ़कर आसमान लगा।


हथगोला तो करम सिंह जैसे खिलाड़ी के लिए एक गेंद के समान था, जिसे उन्होंने विपक्ष के पाले में उछाल फेंका था। इस दूसरे विस्फोट के साथ ही प्रतिपक्षी धराशायी हो गया और करम सिंह उन्हें पीछे धकेलते हुए आगे बढ़ने लगे।

चौकी पर पुनः अधिकार के लिए पाकिस्तानी सैनिकों ने अनेक आक्रमण किए। ऐसे समय में गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद करम सिंह ने न केवल अपने साहस को बनाए रखा, बल्कि अपने सैनिकों के मनोबल एवं उनकी संकल्प शक्ति को भी निरंतर बढ़ाते रहे। उसी दिन दोपहर के करीब एक बजे पाकिस्तान ने पाँचवीं बार आक्रमण किया और यह वही समय था जब करम सिंह ने इतिहास रच डाला।

यह कहानी 15 सितंबर 1915 को जन्मे करम सिंह की है। यह वह दौर था, जब पूरा विश्व प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामों से जूझ रहा था। करम सिंह के पिता सरदार उत्तम सिंह सहना गाँव के रहने वाले एक किसान थे। बालक करम सिंह को खेलना व खेतों में काम करना बहुत अच्छा लगता था। स्कूली पठन-पाठन में उनकी रुचि कम ही थी, परंतु खेल उनकी विशिष्टता थी। ऊंची कूद एवं पोल वॉल्ट (लग्गाकूद) में वे हमेशा पहले स्थान पर ही रहे। 1950 में गुरदयाल कौर से इनका विवाह हुआ और इनकी दो संतानें हुईं, एक बेटा और एक बेटी। 15 सितंबर 1941 को करम सिंह भारतीय सेना से जुड़े। परिश्रम, खेल भावना से परिपूर्ण एवं कर्तव्यनिष्ठा जैसे चारित्रक गुणों ने ही इन्हें 'सम्मानी कप्तान' के पद तक पहुँचाया।

ईमानदार और न्याय के लिए प्रतिबद्ध योद्धा

"1960 के दशक की शुरुआत में करम सिंह मेरठ के सिख रेजिमेंटल सेंटर में थे। उन्हें स्थानीय मिल से सिपाहियों के लिए चीनी खरीदने को कहा गया। किसी ने उनका ध्यान इस बात की तरफ दिलाया कि चीनी की बोरियों को उसका वज़न बढ़ाने के लिए पानी में भिगोकर बेचा जा रहा है। गुस्साए करम सिंह ने मिल वालों से कहा कि वे गीली बोरियाँ स्वीकार नहीं करेंगे। मिल का मालिक एक भ्रष्ट परंतु रसूख वाला व्यक्ति था और उसकी करम सिंह से इस बात को लेकर झड़प हो गई। जब करम सिंह अपनी बात से टस से मस नहीं हुए तो मिल के मालिक ने करम सिंह के साथ धक्कामुक्की करना शुरू कर दिया और अपनी पहुँच का हवाला देते हुए उन्हें धमकी दी कि वह उन्हें देख लेगा।

अब तक करम सिंह अपना आपा खो चुके थे। उन्होंने मिल मालिक की बुरी तरह से पिटाई कर दी। जब इस बात की शिकायत बड़े अधिकारियों तक पहुँची तो नागरिक से हाथापाई के जुर्म में उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया।

करम सिंह अन्याय को चुपचाप सहने वालों में से नहीं थे। वे अपने मेडल्स लेकर दिल्ली पहुँच गए और राष्ट्रपति से मिलने का समय माँगा। उन्हें मिलने का समय दिया गया। जब उन्होंने राष्ट्रपति को सारी घटना साफ़-साफ़ बताई तो उन्हें तुरंत नौकरी पर पुनः बहाल करने के आदेश जारी कर दिए गए।

• स्रोत शूरवीर, रचना बिष्ट रावत

अद्भुत जीत 13 अक्तूबर 1948

13 अक्तूबर 1948 की सुबह लगभग 6 बजे के आस-पास । सिख रेजिमेंट पर अधिकार करने के उद्देश्य से दुश्मन उसकी ओर निरंतर बढ़ रहा था। अब तक करम सिंह और उनके साथी दुश्मन पर कई असफल आक्रमण कर चुके थे। वे यह समझ चुके थे कि इतनी बुरी तरह से घायल होने के बाद, उन लोगों के लिए देर तक दुश्मन का सामना करना अत्यंत कठिन होगा। ऐसी परिस्थिति में उन्होंने मुख्य कंपनी से जुड़ने का निर्णय लिया और मोर्टार और बंदूकों की भारी गोलीबारी के बीच ही गंभीर रूप से घायल अपने दो साथियों को लेकर उस ओर चल पड़े।

सुबह दस बजे के आस-पास दुश्मनों की ओर से एक और हमला हुआ। इस बार यह हमला मुख्य कंपनी पर था। बंकरों के नष्ट हो जाने के बावजूद बुरी तरह से घायल होते हुए भी करम सिंह ने दुश्मनों के खिलाफ लड़ाई जारी रखी। वे अपने साथियों का मनोबल बढ़ाते हुए एक बंकर से दूसरे बंकर तक जाते रहे। वे सभी बुरी तरह से घायल थे।

• लगभग सुबह छः बजे के आस-पास भीषण आक्रमण के बीच उनमें से किसी को भी अपने जख्मों के संबंध में सोचने का वक्त नहीं था। ऐसी स्थिति में भी करम सिंह को अपने साथियों की ही चिंता थी। आक्रमण के दौरान पाकिस्तानी सैनिक बंकर के इतने करीब आ पहुँचे थे कि अपने साथियों को बचाते हुए उन पर जवाबी हमला करना कठिन हो गया था। इसी स्थिति में करम सिंह ने अपनी बंदूक में एक बेयोनेट फिट किया और बंकर से बाहर कूद पड़े। वे आक्रमण करते हुए आगे बढ़ते गए। ऐसी बहादुरी और आकस्मिक बचाव के इस प्रयास को देख दुश्मन भी भौंचक्के रह गए। उनके पसीने छूट गए और शाम तक वे धीरे-धीरे पीछे हटने लगे।


अब तक करम सिंह और उनकी टोली ने ऐसे आठ आक्रमणों का सामना किया था, जिसका प्रत्युत्तर सिख रेजिमेंट ने सफलतापूर्वक दिया। इन सैनिकों ने भारी नुकसान का सामना किया, परंतु इनका मनोबल पूरी तरह अक्षुण्ण रहा। बाद में मेजर जनरल के.एस. विमध्या ने इसे एक अद्वितीय चमत्कारपूर्ण विजय कहा था। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा क्योंकि हरेक नया कदम, हर प्रयास सिर्फ और सिर्फ विजय की ओर ही इंगित कर रहा था। इस अद्वितीय कर्तव्यनिष्ठा एवं वीरता के लिए ही करम सिंह को परम वीर चक्र से नवाजा


गया था। वर्मा में अंग्रेजी सेना के लिए ऐसी ही वीरता एवं साहस के साथ लड़ने के लिए पहले भी उन्हें एक वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ, तब करम सिंह उन पाँच सैनिकों में से एक थे, जिन्हें भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ तिरंगा फहराने के लिए चुना गया था। एक सम्मानी कप्तान के रूप में सन् 1993 में इनका निधन हुआ। लेकिन हम सभी देशवासियों के दिलों में वे अपने साहसिक कार्यों, वीरता, सौहार्द एवं न्यायप्रियता के कारण हमेशा जीवित रहेंगे।

प्रशस्ति पत्र

लांस नायक करम सिंह (सं. 22365), 1 सिख

23 मई 1948 को जम्मू कश्मीर का टथिवाल क्षेत्र अधकार में ले लाया गया था। उस दनि के बाद से दुश्मन ने रचिमर गली तथा उसके बाद टथिवाल पर पुनः अधकिार के लएि अनगनित प्रयास किए। 13 अक्तूबर 1948 को ठीक ईद के दनि, दुश्मनों ने टथिवाल से गुजरते हुए श्रीनगर घाटी में आगे बढ़ने के लएि रचिमर गली पर पुनः अधकिार करने का फैसला लाया। रचिमर गली के एक दल का नेतृत्व उस समय लास नायक करम सिंह कर रहे थे।


दुश्मन ने बंदूकों और मोर्टार की भीषण गोलाबारी से इस आक्रमण का आरंभ किया था।। उनके निशाने इतने सटीक थे कि दस्ते के आस-पास के एक भी बंकर सही सलामत नहीं बचे थे।

संपर्क की सभी खंदकें ध्वस्त हो गई थीं। लांस नायक करम सिंह वीरतापूर्वक एक बकर से दूसरे बकर तक जाकर घायलों की सहायता कर रहे थे और उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित कर रहे थे।

उस दिन दुश्मन की ओर से अलग-अलग आठ आक्रमण किए गए। इनमें से एक आक्रमण में दुश्मन दस्ते के आस-पास के क्षेत्र में अपने पैर जमाने में सफल हो गए। लेकिन तुरंत ही लांस नायक करम सिंह ने, जो कि उस समय बुरी तरह से घायल थे, कुछ साथियों के साथ जोर से चिल्लाते हुए पलटवार किया और एक समीपी मुठभेड़ के बाद दुश्मनों को उस क्षेत्र से खदेड़ दिया। इस मुठभेड़ में कई दुश्मन सैनिक बेयोनेट के द्वारा मौत के घाट उतार दिए गए।

लांस नायक करम सिंह ने स्वयं को 'संकट काल के एक निर्भीक नायक' के रूप में सिद्ध किया। कोई भी परिस्थिति उन्हें परास्त नहीं कर सकी थी और न ही गोलाबारी या कठिनाइयाँ उनके मनोबल को तोड़ पाई थी।

उस दिन के उनके साहसिक कार्य ने उनके साथियों को दृढतापूर्वक भीषण संग्राम का सामना करने की प्रेरणा प्रदान की। यह उनका स्वाभिमान से भरा प्रचण्ड उत्साह ही था, जो टिथवाल के उस शानदार निर्णय के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी था।

गजट ऑफ इंडिया नोटिफिकेशन सं. 2- प्रेसी. /50

मेजर पीरू सिंह परम वीर चक्र विजेता

एक सैनिक की जोखिम भरी यात्रा

20 मई 1918 को राजस्थान के चुरू के रामपुरा गाँव में पीरू सिंह का जन्म हुआ था। सात भाई-बहनों में से एक पीरू को सैनिकों का जीवन हमेशा आकर्षित करता था। इसीलिए बचपन में भी खेतों में काम करना, शिकार करना, जंगलों में घूमना उन्हें अच्छा लगता 'था। देश के लिए लक्ष्य से बँधा यह सिपाही अपने बचपन में कोई बंधन नहीं पसंद करता था। स्कूल जाना भी उन्हें नहीं भाता था। एक दिन तो उन्होंने स्कूल को ऐसा छोड़ा कि फिर कभी नहीं गए। उन्होंने तो अपना रास्ता चुन लिया था— पथरीले रास्तों भरा। ऊपर पहाड़ नीचे खाई। पर बिना किसी डर के बस बढ़ते ही जाना और चलते ही जाना।


जन्म के अठारह वर्ष बाद सन् 1936 के 20 मई को वे सेना में भर्ती हुए। पंजाब में ट्रेनिंग लेने के बाद झेलम में पुनः प्रशिक्षण के लिए पोस्ट किया गया और फिर 5/1 पंजाब में तबादला हुआ। स्कूल की पढ़ाई से भागने वाला यह लड़का आर्मी की हर परीक्षा एक के बाद एक पास करता गया। लांस नायक से एक साल में ही नायक के पद पर पहुँच गए। 1945 में कंपनी हवलदार तक बने।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कॉमनवेल्थ ऑक्यूपेशनल फोर्सेज के साथ काम करने के लिए ये जापान भी गए। 1947 में जब वापस लौटे तो देश दो हिस्सों में बँट चुका था। | ये राजपूताना राइफल्स भेज दिए गए।

फिर पाकिस्तानी फौज ने पठान कबाइलियों के साथ मिलकर कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और उनका सामना करने के लिए पीरू को तैनात कर दिया गया। यहीं पर उन्होंने एक अनुकरणीय साहसिक काम कर दिखाया, जिसके लिए उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। ये 30 वर्ष की अल्पायु में ही शहीद हो गए और छोटी सी उम्र की बड़ी कहानी बन कर अब भी हमारे साथ हैं पीरू सिंह...।

दारापरी - 18 जुलाई 1948

कंपनी हवलदार मेजर (सीएचएम) पीरू सिंह इस समय न ऊपर देख सकते थे न नीचे। आसमान गहरा नीला था. चाँदनी रात थी पर एक सिपाही को ऊपर देखने की फुर्सत कहाँ? नीचे खाई में देखते थे तो एक भया सारा रास्ता पथरीला था। पैर सीधे नहीं पड़ रहे थे। एक भी गलत कदम मृत्यु की ओर ले जा सकता था। ये डेल्टा कंपनी -6 राजपूताना राइफल्स के जवान थे, जो धीरे-धीरे दारापरी की ओर बढ़ रहे थे। इन्हें सूचना थी कि हमलावर यहीं कहीं आसपास छुपे बैठे हैं। थकी चाल थी पर उनके हौसले बुलंद थे जो इस समय ढाल का काम कर रहे थे। वे चुपचाप एक-दूसरे की ओर देख रहे थे और मानो कह रहे हों बस थोड़ा रास्ता और है। इसी थकान के दौरान पुरानी स्मृतियाँ कुछ राहत दे रही थीं। कश्मीर के इस पहाड़ी इलाके को पाकिस्तानी घुसपैठियों से आज़ाद कराना था। सिपाहियों को हवाई जहाज से श्रीनगर पहुँचाया गया। अधिकांश सिपाहियों की यह पहली हवाई यात्रा थी।

अप्रैल 1948 की इस खतरनाक लड़ाई में पाकिस्तानियों को भारी नुकसान हुआ। इसी लड़ाई में 29 अप्रैल की रात प्रतिपक्षी के एक पोज़ीशन पर भारतीय सिपाहियों ने कब्ज़ा कर लिया था। धौंकल सिंह ने इस जीत को अंजाम दिया था। पीरू सिंह को उनकी याद आई। यह भी याद आया कि धौंकल सिंह घने जंगलों के बीच से गोलीबारी से अपने आप को बचाते हुए, कंधे की चोट की परवाह न करते हुए एक सिंह की भांति लड़े थे।

यह याद करते हुए पीरू सिंह को नहीं पता था कि एक दिन उनके साथ भी ऐसा ही होगा। वे अपने साथी को सम्मान से याद करते हुए आगे बढ़ते गए। अब वे 10,264 फीट की ऊँचाई पर नस्ता चुन दर्रे पर थे। वे लोग काफ़िर रिज़ प्वाइंट पर थे जिस पर पाकिस्तानी सैनिकों ने कब्ज़ा कर रखा था और 24 घंटे में उन्हें बनिवाला दाना रिज़ पहुँचना था। काफ़िर खान रिज़ और बनिवाला दाना रिज़ के बीच एक छोटी नदी थी, जिसे पार करने के लिए इंजीनियरों की एक टीम रातोंरात एक पुल बनाने की कोशिश करने लगी। पर सफलता नहीं मिली। जिसकी वजह से पीरू सिंह और उनके साथियों को लकड़ी के लट्ठों से नदी पार करने का रास्ता बनाना था। आखिरकार 12 जुलाई 1948 की सुबह तक प्रतिपक्षी के ठिकाने पर कब्ज़ा कर लिया गया। अब वे अगले ठिकाने की ओर रवाना हो गए। किसी भी तरह दारापरी को अपने कब्जे में लेना था। 18 जुलाई को बटालियन ने दारापरी की नुकीली रिज़ पर हमला बोल दिया।

यहाँ तक पहुँचने में पीरू सिंह और उनके साथियों को यह नहीं पता था कि पाकिस्तानी सैनिकों ने ऐसी पाँच खंदकें बना ली थीं जहाँ से वे भारतीय सैनिकों पर नजर रख सकते थे। इसीलिए जब भारतीय सैनिक आगे बढ़े तो उधर से गोलियों की बौछार होने लगी। में लोग • दारापरी कश्मीर के टिथवाल सेक्टर में स्थित है और इसकी ऊँचाई 11,481 फीट है।

इस बात के लिए तैयार नहीं थे। सर्दियों की रात और रास्ता बिल्कुल संकरा था इसीलिए 51 भारतीय सैनिक मारे गए। ऐसे में किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या हो। आगे का रास्ता तय करना बेहद मुश्किल था। उस समय पीरू सिंह ने अपना अभूतपूर्व साहस दिखाया। उधर प्रतिपक्षी ये समझने लगे थे कि अब उनकी जीत सामने है। पर पीरू सिंह बड़ी समझदारी से फॉरवर्ड सेक्शन के साथ चलते हुए, गोलियों की मार से अपने आप को बचाते हुए आगे बढ़ते गए। साथियों की कराहों के साथ-साथ इनकी चाल और तेज हो रही थी, मानो अपने साथियों का बदला अभी और इसी वक्त ले लेंगे। प्रतिपक्षी इसके लिए तैयार नहीं थे। पीरू सिंह ने मशीनगन चलाने वाले सिपाहियों पर संगीन से हमला कर दिया। अचानक उधर सब कुछ शांत हो गया, प्रतिपक्षियों की मशीनगनें और सांसें भी।

इधर पीरू सिंह ने पाया कि वे बिल्कुल अकेले हैं। उनके सभी साथी या तो मारे जा चुके थे या घायल हो चुके थे। सेक्शन में वे बिल्कुल अकेले चिल्लाते हुए, मानो जिंदगी को पुकार रहे हों, दूसरे बंकर तक गए। उधर इनकी हर हरकत पर बचे हुए पाकिस्तानी सैनिकों की नज़रें थीं। उन्होंने ग्रेनेड से हमला बोला। पीरू सिंह बुरी तरह घायल हो गए और उनकी आँखें मुंदने लगीं, खून तेजी से बहने लगा पर पीरू सिंह का आत्मबल उससे भी तेजी से बढ़ने लगा।

उन्होंने अपनी पूरी ताकत से हथगोले प्रतिपक्षी की बंकर की ओर फेंके। पाकिस्तानी सैनिक शांत हो गए थे। उधर तेज़ धमाका हुआ था। अब पीरू को अपनी चोटों का एहसास हुआ। अबकी बार उनकी आँखें बंद हुई तो फिर न खुली....

पीरू सिंह को मरणोपरांत परम वीर चक्र प्रदान किया गया। उनकी टुकड़ी, 6 राजपूताना राइफ़ल्स हर वर्ष इस बहादुर सिपाही की याद में 'बैटल ऑनर ऑफ़ दारापरी' स्मरणोत्सव मनाती है।

युद्ध नायक के सम्मान में पं. नेहरू का खत पीरू की माँ के नाम

प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पीरू सिंह की माँ (तारावती कंवर) को खत में लिखा- “अपने साहसिक कार्य के लिए उन्होंने अपनी जान कुर्बान कर दी. लेकिन वे अपने साथियों के लिए बहादुरी और साहस की एक अनोखी मिसाल कायम कर गए। मातृभूमि की सेवा में उनके इस बलिदान के लिए देश उनका आभारी रहेगा। हमारी प्रार्थना है कि शायद इस ख्याल से आपके दिल को कुछ शांति और तसल्ली मिले"

स्रोत- शूरवीर, रचना बिष्ट रावत

2831592 कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह, छठी बटालियन, राजपूताना राइफल्स (मरणोपरांत) (पुरस्कार की प्रभावी तारीख 18 जुलाई 1948)

टिथवाल के दक्षिण में डी कंपनी, जिसके एक सदस्य हवलदार मेजर पीरू सिंह नंबर 2831592 थे, को दुश्मन के कब्जे वाले पहाड़ी क्षेत्र पर आक्रमण करने एवं अपने कब्जे में लेने का कार्य सौंपा गया। दुश्मन ने जमीन खोदकर मोर्चे बनाए हुए थे तथा सभी संभावित हमलों का जवाब देने के लिए मीडियम मशीन गनें लगाई हुई थीं। दुश्मन पर जैसे ही हमला आरंभ किया गया, उसने दोनों तरफ से भारी एमएमजी फायर किया। दुश्मन के बंकरों से भी एक के बाद एक ग्रेनेड नीचे की ओर फेंके जाने लगे। उस समय सीएचएम पीरू सिंह कंपनी के सबसे आगे वाले सेक्शन के साथ थे।

अपने सेक्शन के आधे से अधिक जवानों को शहीद अथवा जख्मी हालत में देखकर भी सीएचएम पीरू सिंह ने हिम्मत नहीं हारी। युद्धघोष करते हुए उन्होंने अपने बाकी साथियों की हौसला अफजाई करते हुए दुश्मन की सबसे नजदीकी एमएमजी पोजीशन पर धावा बोल • दिया। दुश्मन के ग्रेनेड के छरों ने उनकी वर्दी को भेदते हुए उनके शरीर को कई जगह से जख्मी कर दिया। परंतु वह अपनी जान की जरा भी परवाह न करते हुए आगे बढ़ते रहे। वह एमएमजी पोजीशन के ऊपर पहुँचे तथा अपनी स्टेनगन के फायर से गन क्रू को घायल कर दिया। उनके जख्मों से खून बह रहा था, परंतु इसकी परवाह न करते हुए वे एमएमजी क्रू पर टूट पड़े तथा संगीन के वार से उन्हें मौत के घाट उतार दिया और इस प्रकार एमएमजी का हमला बंद हो गया।

उस समय अचानक उन्हें महसूस हुआ कि अपने सेक्शन में केवल वे स्वयं ही जिंदा बचे थे। उनके बाकी साथी या तो शहीद हो चुके थे अथवा जख्मी थे। दुश्मन के एक ग्रेनेड से उनका चेहरा जख्मी हो गया। चेहरे पर लगे जख्मों के कारण उनकी आँखों में खून टपक रहा था। परंतु वह रेंगकर खाई से बाहर आए तथा दुश्मन की अगली पोजीशन पर ग्रेनेड से हमला किया। ज़ोरदार युद्धघोष के साथ वे अगली खाई में बैठे दुश्मन सैनिकों पर टूट पड़े और दुश्मन के दो सैनिकों को संगीन के वार से ढेर कर दिया। यह कारनामा 'सी' कंपनी के कमांडर ने अपनी आँखों से देखा जो हमला कर रही कंपनी की सहायता के लिए फायर करने का निर्देश दे रहे थे।


जैसे ही हवलदार मेजर पीरू सिंह दूसरी खाई से बाहर निकलकर दुश्मन के तीसरे बंकर पर हमला करने के लिए आगे बढ़े, उनके सिर में एक गोली लगी तथा वह दुश्मन की खाई के मुहाने पर लुढ़क गए। उसी समय खाई के अंदर जोरदार विस्फोट हुआ जिससे लगा कि उनके द्वारा अंदर फेके गए ग्रेनेड ने अपना काम कर दिया था। तब तक सीएचएम पीरू सिंह के जख्मों से काफी खून बह चुका था और वे वीरगति को प्राप्त हो गए।

गजट ऑफ़ इंडिया नोटिफिकेशन सं.8- प्रेसी/52